Saturday 26 March 2011

नुमाइंदगी का झुनझुना और व्यवस्था की साजिशें...





जिसे मुख्यधारा की पत्रकारिता कहा जाता है, वह आज पूरी तरह बाजार पर निर्भर हो चुका है और खुले रूप में बाजार-व्यवस्था का पोषण करता है। वह इस पर बारीक निगाह रखता है कि समाज में जो चल रहा है, उसे कैसे उत्पाद के रूप में पेश किया जाए। वह हर चीज को बेचना जानता है। भावनाओं या संवेदनाओं को भी...। आग्रहों-पूर्वाग्रहों या दुराग्रहों को भी...। वह अगर किसी खास चीज को ज्यादा बेच सकता है तो उसे निशाने पर रखने के बावजूद अपने बीच जगह देता है। और जिसे वह अपने लिए घाटे का सौदा मानता है, उसे चुपचाप हाशिए पर फेंक देने में वह जरा भी हिचक नहीं दिखाता। मुनाफे और घाटे की इसी बेहतरीन सौदेबाजी की वजह से ही सही, पत्रकारिता में महिलाओं को जगह मिली। लेकिन जिस मौके को महिलाओं को अपनी वर्गीय अस्मिता को एक पहचान देने का जरिया बनाना था, वे वहां पहुंचने के बावजूद खुद व्यवस्था को बनाए रखने का जरिया बनी हुई हैं। एक तरह से कहा जा सकता है कि उनका इस्तेमाल व्यवस्था को बनाए रखने के लिए हो रहा है। प्रिंट मीडिया में आज भी महिलाओं की गिनती इतनी नहीं है कि कम से कम के पैमाने पर भी संतोष किया जा सके। जहां वे हैं, उन्हें काम के तौर पर अमूमन वैसी जिम्मेदारियां सौंपी गई हैं कि वे समाज में पारंपरिक या रिवायती स्त्री की आकांक्षाओं को तुष्ट करें। यह बेवजह नहीं है कि जितनी भी पत्र-पत्रिकाओं में 'पति को कैसे रिझाएं' 'सास को कैसे मनाएं' या 'रसोई की रानी कैसे बनें' या सजने-संवरने के तमाम बताने से संबंधित तमाम सामग्रियां जुटाने और परोसने की जिम्मेदारियां आम तौर महिला पत्रकारों के जिम्मे सौंपी जाती हैं।

हिंदी अखबारों और पत्रिकाओं के फीचर पन्ने तो आज भी स्त्री सुबोधिनी के युग से आगे नहीं पहुंच पाए हैं। कई बार लगता है कि इस तरह की जिम्मेदारियों को संभालने वाली महिलाओं को पत्रकार भी कैसे कहा जाए। लेकिन संस्थान की कथित जरूरतें पूरी करती हुई इन महिलाओं से उनके हिस्से आई बहुत छोटी कामयाबी को भी यों ही कैसे खारिज कर दिया जाए। असल मुश्किल तो यह है कि ज्यादा पत्र-पत्रिकाओं में संपादकीय नीतियों के बारे में फैसले लेने वाले पदों पर महिलाओं की पहुंच नहीं के बराबर है। हिंदी के साथ अंग्रेजी अखबारों-पत्रिकाओं को मिला दें तो भी संपादक के पद पर किसी महिला का नाम मुश्किल से मिलेगा। अखबारों-पत्रिकाओं में आमतौर पर मान लिया गया है कि रिपोर्टिंग का काम महिलाएं नहीं कर सकतीं। रिपोर्टिंग करती हुई इक्का-दुक्का महिलाओं का नाम सामने आता है।

यह हालत खासतौर पर हिंदी और प्रिंट मीडिया में है। लेकिन अंग्रेजी को जो लोग प्रगतिशील भाषा मानते हैं, वे दरअसल प्रगति के पैमाने को अपनी नजर और सुविधा के अनुकूल पाकर ही उसकी वकालत करते हैं। वरना वहां भी आधुनिकता के पर्दे में लिपटा परंपरावाद अपने प्रच्छन्न रूप में काम करता रहता है। अंग्रेजी अखबारों में दिल्ली टाइम्स या एचटी सिटी में पार्टी मेकअप और घर को सजाने के तरीके बताने के काम में महिलाओं को माहिर मान कर उन्हें ही इस 'प्रो-वीमेन' पन्नों को संभालने के लिए लगा दिया जाता है। फीचर पन्नों पर या टीवी कार्यक्रमों में ज्यादतर महिलाएं होने के बावजूद अगर ये पन्ने लैंगिक और जातीय स्तर पर सामाजिक यथास्थितिवाद को बनाए रखने में ही मददगार साबित हो रही हैं तो इसके कारण ढूढ़ने की जरूरत है। क्या ऐसा इसलिए है क्योंकि समाज पर नियंत्रण बनाए रखने वाली ताकतें अपनी सत्ता को बचाए रखने के लिए बेहद लचीला रुख अख्तियार करते हुए तो दिखती हैं, लेकिन नतीजे के तौर पर फिर-फिर वही आता है कि उनके उस तथाकथित लचीलेपन की वजह से आखिरकार उनकी ही सत्ता बची रहती है। स्त्रियां और समाज की निचली जातियों के प्रति उनका यह लचीलापन तभी दिखता है जब व्यवस्था पर अलग-अलग कोणों से सवाल उठाए जाने लगते हैं।

दूसरी ओर टीवी मीडिया में बाजार ने अपनी जरूरतों के हिसाब से महिलाओं को जगह दी है। हालांकि फैसले लेने के मामले में उनके दखल के हालात वहां भी बहुत अच्छे नहीं हैं। लेकिन वहां की मुश्किल अलग है। कई बार कहा जाता है कि किसी क्षेत्र में महिलाओं की नुमाइंदगी बढ़ेगी तो कामकाज के तौर-तरीके भी खुद-ब-खुद बदल जाएंगे। मगर टीवी चैनलों में तो अच्छी तादाद में महिलाओं की पहुंच हुई है। वहां स्त्री अस्मिता के सवालों को लेकर कोई जद्दोजहद क्यों नहीं दिखाई देती? असली मामला चेतना का है, जागरूकता का है। बहुत आधुनिक दिखाई देना और आधुनिक होना- दोनों दो बातें हैं। अगर किसी स्त्री की कंडीशनिंग उसी तरह हुई है जिससे व्यवस्था के बने रहने में मदद मिलती है तो उसके काम से स्त्रियों का कुछ भला होने की उम्मीद नहीं की जा सकती। 

अपनी अस्मिता के प्रति सचेत कोई भी व्यक्ति अपनी वर्गीय अस्मिता की लड़ाई की धार को और तीखा करेगा। मगर हम पहले से समाज के तौर पर इतना ज्यादा खंडित जीवन जी रहे होते हैं कि वर्गीय लड़ाई की यह व्यापक अवधारणा बहुत छोटे-छोटे छुद्र स्वार्थों के बोझ तले दब कर दम तोड़ देती है। हमारे ज्यादातर काम पर हमारे सामाजिक या यों कहें कि जातीय या आर्थिक वर्ग हावी रहते हैं। ऐसे पूर्वाग्रहों के रहते स्त्री अस्मिता के जरूरी सवालों पर बात करने की गुंजाइश कहां रह जाती है? जाहिर है, यह उसी पितृसत्तात्मक व्यवस्था का न सिर्फ निर्वाह है, बल्कि एक तरह से उसका पोषण भी है जिसमें एक बड़े सामाजिक वर्ग के साथ-साथ स्त्रियों को भी वंचित और परनिर्भर के रूप में ही 'अच्छा' होने का तमगा मिलता है।     

एक समाचार एजेंसी एपी से जारी एक खबर के मुताबिक इंग्लैंड में हुए एक सर्वे में पाया गया कि आधुनिक महिलाएं चाहती हैं कि पति परिवार चलाने के लिए कमाए। खबर कहता है कि ब्रिटेन की ज्यादातर आधुनिक महिलाएं पारंपरिक मूल्यों की ओर लौटना चाहती हैं, जिसके तहत पुरुष परिवार के भरण-पोषण के लिए कमाता था और महिलाएं 'घर और परिवार' की देखभाल करती थीं। इसी तरह चार साल से कम उम्र के बच्चों वाली महिलाओं के वार्षिक ब्रिटिश सोशल एटीट्यूड सर्वे के अनुसार सत्रह फीसदी माताएं चाहती हैं कि पुरुषों और महिलाओं की अलग-अलग भूमिका होनी चाहिए। वर्ष 2002 में किए गए पिछले सर्वेक्षण की तुलना में यह दो फीसदी अधिक है। सर्वेक्षण में पूछे गए सवालों के जवाबों का विश्लेषण करने वाले समाज विज्ञानी ज्योफ डेंच ने कहा- 'बच्चों वाली महिलाएं पारंपरिक श्रम विभाजन की ओर लौट रही हैं, जिसमें वे चाहती हैं कि पति परिवार के लिए रोजी-रोटी का जुगाड़ करे।' सर्वेक्षण के मुताबिक अगर महिलाएं पूरे समय काम करती रहीं तो पारिवारिक जीवन प्रभावित होगा- ऐसा सोचने वाली माताओं की संख्या बढ़ कर सैंतीस फीसदी हो गई। 'डेली मेल' में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार एक घर और बच्चे की चाहत रखने वाली महिलाओं की संख्या 2002 की तुलना में दोगुनी से अधिक बढ़ कर बत्तीस फीसदी हो गई है। सर्वेक्षण में यह भी पाया गया कि सर्वाधिक खुशहाल होने की बात करने वाली वे महिलाएं थीं, जो ऐसी घरेलू महिला की भूमिका में थीं और जो थोड़ा-बहुत पैसा भी कमा लेती हैं।

सवाल है कि ऐसे सर्वेक्षण और उसका प्रकाशन क्या साबित करते हैं। क्या इससे यह नहीं साफ होता है कि व्यवस्था खुद को बनाए रखने के लिए एक साथ कई स्तरों पर काम करती है। कितनी सदियों की जद्दोजहद के बाद महिलाएं अपनी ताकत से जगह हासिल कर रही हैं। ऐसे सर्वेक्षणों के जरिए क्या यह साबित करने की कोशिश नहीं की जा रही है कि स्त्रियां खुद ही मर्दों को मुख्य भूमिका में रखना चाहती हैं और अपनी जिम्मेदारी का दायरा घर की चारदीवारियों को मानती है? हालांकि इससे एक संकेत यह भी मिलता है कि महिलाओं के बढ़ते दखल से व्यवस्था डरी हुई है और ऐसे सर्वेक्षणों के शिगूफे छोड़ कर स्त्री समाज के मनोबल को गिराने की कोशिश कर रही है। ऐसे सर्वेक्षणों और उनके नतीजों को आज की महिलाओं को सचेत तौर पर खारिज करना होगा, क्योंकि ये दरअसल उसी पितृसत्ता की साजिशों का नतीजा हैं जिसकी शिकार वे आज तक रही हैं।

कुछ समय पहले एक अखबार में एक खबर छपी थी जिसके मुताबिक डॉक्टर महिलाओं को स्वस्थ रहने के लिए दिन के हिसाब से व्रत-उपवास रखने की सलाह देते हैं। क्या खबर देने वाले पत्रकार की यह जिम्मेदारी नहीं बनती थी कि वह इस मामले पर आलोचनात्मक तरीके से काम करता कि स्वस्थ रहने के लिए भूखे रहना कितना फायदेमंद या नुकसानदेह है, फिर एक डॉक्टर द्वारा भूखे रहने के लिए व्रत-उपवास का सहारा लेने की सलाह देना कितना सही है? व्रत-उपवास रखने के 'वैज्ञानिक' कारण और उसके फायदे बताने वाले आम लोग भले इन 'तर्कों' की 'वैज्ञानिकता' से प्रभावित होते हैं, लेकिन एक पत्रकार भी अगर उसी माइंडसेट से इसे खबर के रूप में परोसता है, तो असल में वह उन्हीं लोगों की ताकत बनता है या उसमें शामिल होता है, व्यवस्था को बनाए रखने के लिए नित नई-नई साजिशें रचते रहते हैं। इसके पीछे केवल आर्थिक मुनाफा नहीं, बल्कि गहरे सामाजिक कारण छिपे हैं कि आज करवा चौथ जैसे शुद्ध जड़वादी त्योहार टीवी या प्रिंट मीडिया के लिए एक प्रिय 'मौका' हो गए हैं।

आज कल कथित शोधों के हवाले से बड़े पैमाने पर ऐसी खबरें परोसी जा रही हैं जिनमें बताया जाता है कि गोत्र से बाहर शादी करने से उन्नत नस्ल की संतान प्राप्त होती है। लेकिन ऐसे शोध खोजने से भी नहीं मिलते जिसमें यह कहा गया हो कि जाति, मजहब या दूसरे नस्ल के व्यक्ति से शादी करने से भी जो संतान प्राप्त होगी वह मौजूदा नस्ल से ज्यादा उन्नत होगी। दहेज हत्या और दूसरे तमाम घरेलू हिंसा कानूनों के खिलाफ छपी सामग्रियों पर एक शोध-पत्र तैयार हो सकता है। ऐसी खबरें कहां से और किन मानसिकता से तैयार हो रही हैं? जाहिर है, व्यवस्था खुद को कायम रखने के लिए इस तरह की खबरें प्रायोजित करतीहै और मीडिया में बैठे उनके नुमाइंदे उनके लिए हथियार के तौर पर काम करते हैं।

लेकिन कई बार लगता है कि ऐसा सब कुछ साजिशन भी किया जाता है। किसी स्त्री के साथ बलात्कार के मामलों की रिपोर्टिंग करते समय बिना किसी हिचक के 'इज्जत लूट लेने' या 'दुष्कर्म करने' जैसे शब्दों का इस्तेमाल धड़ल्ले से किया जाता है। अगर किसी स्त्री को बच्चा नहीं हुआ तो उसे 'बांझ' कहते हुए किसी की जुबान नहीं लड़खड़ाती। सवाल है कि क्या यह सिर्फ शब्दों का लापरवाह इस्तेमाल भर है? मेरे खयाल से एक पत्रकार का कोई काम समाज को किसी न किसी रूप में शिक्षित करता है। लेकिन हो यह रहा है कि एक तरफ वह स्त्री के खिलाफ किए गए सबसे वीभत्स अपराध के लिए 'दुष्कर्म' जैसे शब्द का साजिशन इस्तेमाल करता है और बलात्कार शब्द के दंश को हल्का करता है तो दूसरी ओर वह इसी अपराध के लिए व्यवस्था का प्रिय रहा जुमला 'इज्जत लूट लिया' जैसे शब्दों से अपनी खबर सजाता है। यानी दोनों स्तरों पर भुक्तभोगी स्त्री ही आखिरकार निशाने पर है।

हाल ही में दिल्ली मेट्रो ट्रेन में महिलाओं के लिए अलग एक डिब्बा आरक्षित होने पर अखबारों और टीवी में हैरतअंगेज रिपोर्टिंग दिखाई पड़ी। कई रिपोर्टरों ने इसे बाकायदा पुरुषों पर अत्याचार के रूप में पेश किया और इस सुविधा को महिलाओं के समानता का अधिकार मांगने के खिलाफ बताया। दो ही बातें हैं। या तो ऐसी रिपोर्टिंग करने वाले पत्रकार, वे पुरुष हों या महिला, पूरी तरह पुरुष कुंठा और दुराग्रहों से भरे हुए हैं या फिर उनका दिमागी विकास अभी बाकी है। वे निश्चित तौर पर किसी मसले को उसके असली और व्यापक संदर्भों के साथ देखने के मामले में अक्षम हैं। हैरानी होती है कि लगभग सभी जगहों पर असुरक्षित स्त्री के लिए अलग डिब्बा आरक्षित करने को उनके समानता के अधिकारों की मांग के खिलाफ बताने वाले लोग कैसे खुद को एक पत्रकार कहते हैं। खुद को बाकियों से श्रेष्ठ व्यक्ति के रूप में पेश करने वाला कोई भी व्यक्ति अगर किसी मसले का ईमानदारी से विश्लेषण नहीं कर सकता तो उसकी क्षमता पर सवाल उठाया जाना चाहिए।