Sunday 11 November 2012

देह से दबा स्त्री का "व्यक्ति"



अभी तक हमारे जेहन में पाकिस्तानी विदेश मंत्री हिना रब्बानी खार की उस भारत यात्रा की यादें ताजा हैं, जब भारतीय मीडिया ने उन्हें खूबसूरती, तन पर पहने कपड़ों, गहनों और उनके पर्स तक ही समेट दिया था। इसके पहले किसी विदेशी महिला नेता के कपड़ों पर मीडिया ने ऐसी हाय-तौबा नहीं मचाई थी। लेकिन हिना एक औरत हैं और वह भी सामाजिक सौंदर्यबोध के हिसाब से बेहद खूबसूरत। तो मर्दों के वर्चस्व वाले भारत-पाकिस्तान की राजनीति में किन्हीं खास समीकरणों से आई महिला के साथ मीडिया का ऐसा सुलूक करना तो स्वाभाविक था। खैर, हिना के बाद अपने परिधान के कारण एक और महिला नेता भारतीय मीडिया की सुर्खियों में आईं और वे हैं आस्ट्रेलिया की प्रधानमंत्री जूलिया गिलार्ड।

जूलिया गिलार्ड राजघाट पर गांधी समाधि से लौटते वक्त ऊंची एड़ी वाले जूतों के कारण फिसल कर गिर गर्इं। लेकिन उसके तत्काल बाद जूलिया ने जो बात कही, वह हमें सोचने पर मजबूर करता है। अखबार ‘हेराल्ड सन’ ने जूलिया के हवाले से लिखा- ‘मेरी चप्पल की ‘हील’ घास में उलझ गई थी।’ उन्होंने यह भी कहा कि पुरुष जहां सपाट तल्ले वाले जूते पहनते हैं, वहीं महिलाओं के लिए संकोच में हील पहनना पेशेवर दुविधा होती है। अगर आप ऊंची एड़ी वाले जूते पहनें तो नरम घास में ये चिपक सकते हैं और जब आप अपना पैर ऊपर उठाते हैं तो जूता नहीं उठता। और फिर ऐसा ही होता है जैसा आपने देखा।’ गिलार्ड ने बूट पहनने के सुझावों को दरकिनार करते हुए कहा कि स्कर्ट के साथ बूट पहनने से आस्ट्रेलिया में फैशन संबंधी आलोचनाएं होने लगेंगी। इससे पहले जनवरी में भी कैनबरा में आस्ट्रेलिया दिवस पर हुए दंगे से दूर ले जाए जाते वक्त गिलार्ड का एक जूता खो गया था। पिछले चुनाव प्रचार के दौरान भी उन्होंने अपना जूता खो दिया था। एक विकसित और आधुनिक देश की प्रधानमंत्री जूलिया गिलार्ड को इससे पहले भी अपने शारीरिक गठन को लेकर असहज कर देने वाली टिप्पणियों का सामना करना पड़ा है। एक समारोह में एक वरिष्ठ नेता ने सार्वजनिक रूप से उन्हें कहा- ‘माफ कीजिएगा आपका पिछवाड़ा काफी बड़ा है।’

आखिर एक सशक्त महिला नेता के लिए किसी पुरुष को सार्वजनिक तौर पर ऐसी कुंठा जाहिर करने की जरूरत क्यों पड़ी? क्या यह वही मानसिकता नहीं है जो किसी भी महिला को उसके शरीर में समेटने और सीमित रखने को मजबूर करती है? और वे कौन-सी वजहें हैं जिसके कारण एक देश की सशक्त प्रधानमंत्री ‘‘फैशन पुलिस’’ से डर रही है। जिस नेता के इशारे पर उसकादेश और वहां का सैन्य बल चलता है, वह समाज के ठेकेदार ‘फैशन पुलिस’ के सामने इस कदर लाचार क्यों है?

पश्चिमी देशों में ‘फैशन पुलिस’ का यह खौफ विकासशील देशों में ज्यादा मुखर दिखता है। ग्यारह महीने पहले मां बनी ऐश्वर्य राय के पीछे ‘फैशन पुलिस’ का नया-नया जन्मा तबका पीछे पड़ गया था। नई मां को अपने और अपने शिशु के स्वास्थ्य का कितना खयाल रखना होता है, यह सभी को मालूम है। लेकिन भारतीय मीडिया एक जच्चा को सिर्फ एक फैशनपरस्त देह मानता है और उस देह पर चर्बी आ जाने के लिए उसकी अशालीन आलोचना करने में लग गया था। हाल ही में शिल्पा शेट्टी से जब एक पत्रकार ने मां बनने के बाद उनके बढ़ते वजन पर ही लगातार सवाल किए तो उन्होंने झल्ला कर कहा कि अब वे कभी भी पहले जैसा शरीर हासिल नहीं कर पाएंगी।

ऐश्वर्य और शिल्पा ने ‘फैशन पुलिस’ के इस रवैए को लेकर दुख भी जताया। लेकिन सच यह है कि ऐश्वर्य और शिल्पा सरीखी कलाकारों ने अपने कॅरियर का आधार ही देह बनाया। खुद को ‘फैशन आइकॉन’ कह कर अपनी कीमत बढ़ाई। इसलिए इनके कॅरियर का आधार, यानी शरीर का ढांचा ‘बिगड़ते’ ही इन्हें इनके बाजार से बाहर करने की तैयारी शुरू गई। यों भी, इस बुनियाद पर टिका आधार इसी तरह दरकता है। इस पेज थ्री की बेरहमी की शिकार कभी पेज थ्री की अगुआ रहीं शोभा डे भी हो चुकी हैं। शोभा डे ने फिल्म ‘आई हेट लव स्टोरी’ में अभिनेत्री सोनम कपूर के अभिनय की आलोचना की। फिल्म के निर्देशक और सोनम के दोस्त पुनीत मल्होत्रा को यह बात नागवार गुजरी। उन्होंने ट्विटर पर शोभा डे को ‘मेनोपॉज’ से गुजर रही सूखी पत्ती कहा। शोभा डे के लिए अपने दोस्त की अपमानजनक टिप्पणी की हौसलाअफजाई करते हुए सोनम ने उसे रीट्वीट किया। क्या सोनम को इस बात का अहसास नहीं था कि कुछ सालों बाद वे भी इस दौर से गुजरेंगी? लेकिन इस ‘फैशन पुलिस’ ने देह की सुविधा के साथ भावनाओं को कुचलना भी तो सिखाया है!

ग्लैमर की दुनिया से बाहर की बात करें तो चाहे यूरोप हो या एशिया, हर संस्कृति में परंपरागत से लेकर अति आधुनिक होने तक महिलाओं के लिए ऐसे वस्त्र क्यों तैयार किए जाते हैं जो महिलाओं को महज ‘सेक्स ऑब्जेक्ट’ के रूप में परोसते हैं, वह भारत की साड़ी हो या पश्चिम की स्कर्ट। आखिर ऐसा क्यों है कि पुरुषों के कपड़े ऐसे बनाए गए हैं जिसमें सामान्य तौर पर उनके चेहरे और हाथ के अलावा कुछ नहीं दिखता और महिलाओं के कपड़े ऐसे क्यों बनाए जाते हैं जो सीधे उनकी शारीरिक, और खासतौर पर कमर और सीने की बनावट पर ही ध्यान खींचे। आम तौर पर एक्जक्यूटिव क्लास की नौकरियों में भी पुरुष की वर्दी तो सूट-बूट-टाई की होती है, लेकिन महिलाओं को "ड्रेस कोड" के नाम पर स्कर्ट और ऊंची एड़ी जूते आदि के असुविधाजनक, लेकिन "फैशनेबल" पोशाकों से लैस होना पड़ता है। कुदरती तौर पर दो बराबर के व्यक्ति में इस तरह के वस्त्र-विभाजन के पीछे कौन-सी वजह होगी, जिसमें एक का "व्यक्ति" महत्त्वपूर्ण है और दूसरे का शरीर? इसी तरह महंगे आधुनिक स्कूलों में लड़कियों की घुटनों से ऊपर तक चढ़े स्कर्ट जैसी वर्दी तैयार की जाती है जिससे वे स्कूल के मैदान में सामान्य उछल-कूद भी नहीं मचा सकें। और वे ऐसा करने की कोशिश करें, तो वह दूसरों को ‘तुष्ट’ करने का जरिया बने। हालांकि अब महानगरों के बहुत से स्कूल अपनी वर्दी को जेंडर न्यूट्रल बनाने की कोशिश में हैं, मगर ऐसे स्कूल बहुत कम हैं। देह आधारित सामाजिक दृष्टि की दुनिया में दुकान चलाने के लिए ‘आकर्षण के टोटकों’ का शोषण तो लाजिमी बनता है!

आधुनिक समाज में फैशन शो और पेज थ्री पार्टी की धूम मची रहती है। इन्हीं के साथ फैशन की दुनिया से एक जुमला उछल कर आया है ‘मालफंक्शन’ का। यानी मॉडल, हीरोईन या सोशलाइट के कपड़ों का ऐसे कट-फट जाना या गिर जाना, जिसके कारण उनके वे अंग कैमरे में कैद हो जाएं जिन्हें ढकने के लिए आम महिलाएं कपड़े पहनती हैं। लेकिन मेरे लिए यह समझना मुश्किल है कि ‘मालफंक्शन’ के इस आधुनिक चलन की एक खासियत यह क्यों है कि यह सिर्फ महिलाओं के शरीर के साथ ही होता है? यानी महिलाओं के ही कपड़े इतने ‘नाजुक’ और असुविधाजनक बनाए जाते हैं कि अगर शरीर स्वभावगत सुविधा की मुद्रा में आना चाहता है तो ये कपड़े धोखा दे देते हैं और उस महिला को शर्मिंदगी का सामना करना पड़ता है। यह ‘मालफंक्शन’ पुरुषों के साथ होता है या नहीं, यह पता नहीं, क्योंकि हम इस तरह मीडिया में उन्हें शर्मिंदा होते हुए शायद ही देखते हैं। हों भी क्यों? शर्म आखिर स्त्रियों का ‘गहना’ है, इसलिए शर्मिंदा होने की ठेकेदारी स्त्रियों को उठानी होगी!

अगर किसी दफ्तर में कोई पुरुष हाफ पैंट, बरमूडा या कैपरी पहन कर आ जाए तो यह अनुशासन के खिलाफ होता है। सब उसे ऐसी नजरों से घूरते हैं, जैसे उसने कोई अपराध कर दिया हो। उसका यह तर्क बिल्कुल नहीं सुना जाएगा कि उसे बहुत गर्मी लग रही थी या शरीर की किसी परेशानी से आराम पाने के लिए उसने ऐसा किया या फिर यह चलन में है। वहीं अगर कोई महिला छोटे स्कर्ट पहन कर आधी टांगों का प्रदर्शन करते हुए आॅफिस पहुंचती है तो उसे आधुनिक और वेल ड्रेस्ड समझा जाता है। अपने घर में बीवी या बेटी को सात परदे में रखने वाले सहकर्मी उस महिला की तारीफ करते नहीं थकते। पुरुष का टांगें दिखाना अभद्र और बुरा है और किसी महिला का टांगें दिखाना या शरीर प्रदर्शन में अपना ‘व्यक्तित्व’ देखना आधुनिकता का प्रतीक! अजीब विकृत मानसिकता है। इस दोहरेपन की साजिश को समझना क्या इतना मुश्किल है?

स्त्री और पुरुष अगर बराबर है तो उनके लिए तैयार परिधानों में शारीरिक संरचना को ढकने-दिखाने के पैमाने कहां से आए? ‘अपनी पसंद’ के कपड़े पहनने की आजादी का सिरा किस गुलामी से जुड़ता है, क्या हमारा ध्यान इस पर कभी जा पाता है? वस्त्रों के बंटवारे के इस ढांचे के आधार में ही गड़बड़ी है। एक तरफ परदे में ढक-तोप कर तो दूसरी ओर आधुनिकता के नाम पर निर्वस्त्र कर, व्यवस्था ने स्त्री को सिर्फ देह ही बनाया है। इस मामले में पहल तो महिलाओं को ही करनी पड़ेगी। ‘फैशन पुलिस’ के आतंक के खिलाफ महिलाओं को ही आवाज उठानी होगी। क्या हम यह अंदाजा लगा सकने में सक्षम नहीं है कि हमारी अपनी बड़ी होती बेटियां महज एक फैशन के पैमानों में फिट होने वाली देह बन कर न रह जाएं? अकेले देह पर आधारित व्यक्तित्व देह आधारित मानसिकता भी तैयार करेगा। और इसका शिकार आखिर स्त्री को ही होना है। इसलिए स्त्री का देह उतना महत्त्वपूर्ण नहीं है जितना कि उनका ‘व्यक्ति’ होना जरूरी है।

Monday 22 October 2012

भारतीय राजनीति के बरक्स इंदिरा-तत्त्व


अगले लोकसभा चुनावों की सुगबुगाहट शुरू हो चुकी है। साथ ही शुरू हो चुका है, ‘कौन बनेगा प्रधानमंत्री’ मार्का सर्वेक्षणनुमा खेल। इन सर्वेक्षणों में मीडिया का वह पुराना राग भी शामिल हो गया है कि क्या लोग प्रियंका गांधी में इंदिरा गांधी की छवि देखते हैं! कांग्रेस की नैया संभालने में राहुल गांधी के लगभग फेल होने के बाद अब नजरें प्रियंका पर हैं। प्रियंका गांधी की वैधता के लिए इंदिरा गांधी से तुलना।

इंदिरा गांधी, भारत की पहली महिला प्रधानमंत्री थीं, जिन्हें आप खूब पसंद कर सकते हैं, उनकी जम कर आलोचना कर सकते हैं, आपातकाल थोपने के लिए उन्हें तानाशाह कहने में भी कोई हिचक नहीं होनी चाहिए, लेकिन किसी भी तरह से उन्हें खारिज नहीं किया जा सकता। आखिर एक महिला अब तक के भारत की सबसे ताकतवर नेता के दर्जे पर कैसे टिकी रह सकी? इंदिरा को अपने पिता जवाहरलाल नेहरू की विरासत मिली।

यहां मैं बेहिचक कहूंगी कि शायद अगर नेहरू को एक बेटा होता तो हिंदुस्तान को शायद अब तक उसकी पहली महिला प्रधानमंत्री नहीं मिली होती। एक परंपरागत इंसान की तरह ही नेहरू ने अपनी विरासत अपनी खून को ही सौंपे जाने की जमीन तैयार की। इसके बावजूद नेहरू उस समय के आधुनिक सोच के लोगों में से एक थे। उन्होंने अपनी इकलौती बेटी का लालन-पालन आम लड़कियों की तरह नहीं किया। वे अपनी बच्ची की शिक्षा-दीक्षा को लेकर काफी सजग थे।

जेल में बैठे हिंदुस्तान के इस सबसे कद्दावर नेता को अपनी बड़ी होती बेटी की फिक्र थी और उसने बेटी को छुई-मुई बनाने या महज एक सहयोगी तत्त्व के रूप में विकसित करने के बजाय उसके भीतर शुद्ध राजनीतिक चेतना भरी और व्यावहारिक-वैज्ञानिक सोच का विकास किया। बेटी को दुनिया और विज्ञान के लिए समझाने के लिए चिट्टी लिखी।

एक प्रगतिशील पिता के अपनी बेटी के नाम वे गंभीर खत यह जताने के लिए काफी हैं कि नेहरू ने इंदिरा गांधी की ‘कंडीशनिंग’ कैसे की। वह शख्स जो ‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ लिख रहा है, अपनी बेटी से भी वैसी ही उम्मीद लिए संवाद कर रहा है, ताकि उसमें ब्रह्मांड की उत्पत्ति को लेकर एक वैज्ञानिक सोच पैदा हो, वह इसे किसी ईश्वर की बनाई संरचना न समझ बैठे। उन खतों की अहमियत इतनी है कि बाद में वे किताब के रूप में संकलित होकर भारतीय बच्चों के बीच पहुंची, स्कूली पाठ्यक्रम का हिस्सा बनीं।

इंदिरा को लोगों से मिलने-जुलने और इस देश के मिजाज से लेकर राजनीति तक को समझने का खूब मौका मिला। इसी कंडीशनिंग ने इंदिरा को फौलादी इरादों वाली महिला बनाया। इंदिरा ने राजनीति को उसी तरह से लिया जिस तरह से कोई पुरुष नेता लेता। राजनीति तो विरासत में मिली, लेकिन उसके शीर्ष पर बैठना ही इंदिरा ने अपना लक्ष्य रखा। फिरोज गांधी से इंदिरा की शादी भी शायद एक समझौता थी। शायद यही वजह है कि इंदिरा ने शादी या पति को कभी अपनी अस्मिता के आड़े नहीं आने दिया, बस अपने लक्ष्य पर नजर टिकाए रखा। इंदिरा के ऊपर कभी भी पत्नी या मां की छवि हावी नहीं हो पाई। वह शुरू से अंत तक एक राजनेता ही रहीं।

इंदिरा का अपने राजनीतिक कॅरियर को लेकर हमेशा एक पुरुषवादी व्यवहार रहा और शायद यही वजह है कि कोई उन्हें डिगा नहीं सका। यहां तक कि आपातकाल जैसा तानाशाही फैसला थोपने और उसकी वजह से बुरी तरह हारने के महज तीन-चार सालों के बाद वे फिर से वहीं खड़ी दिखीं तो इसलिए कि उन्होंने अपने ऊपर भारतीय परंपरावाद के गैरजरूरी आख्यान हावी नहीं होने दिए या अपने सामने की ‘चुनौतियों’ से उसी तरह निपटा, जैसे भारतीय राजनीति के पुरुष नेतृत्व निपटते रहे हैं।

यहां एक सवाल उन्होंने यह भी छोड़ा कि क्या मौजूदा पुरुषवादी राजनीति के बरक्स कोई मानवीय विकल्प नहीं खड़ा किया जा सकता है? लेकिन इंदिरा गांधी अगर उस रास्ते की तलाश करतीं या उस पर चलने की हिम्मत करतीं तो उनके उस रूप में टिके रह सकना किस हद तक संभव होता! पितृसत्तात्मक व्यवस्था की असली राजनीति रही है, जिसमें सत्ता को हमेशा इसका खयाल रखना पड़ता है और शासितों को उभरने से रोकने की हर कोशिश की जाती है, ताकि स्त्री या वंचित वर्गों की कोई समांतर सत्ता खड़ी ही न हो सके।

खैर, इंदिरा से प्रियंका की तुलना के मौके निकाले जा रहे हैं तो यह कांग्रेस के लिए शायद जरूरत है। लेकिन सच यही है कि इंदिरा गांधी से मिलती-जुलती शक्ल वाली प्रियंका गांधी में इंदिरा वाले कोई तेवर नहीं दिखते। प्रियंका की मां सोनिया को अपने पति के मरने के बाद विरासत में कांग्रेस की बागडोर मिली। उसके पहले तक सोनिया ने एक ‘हाउस वाइफ’ ही बनना पसंद किया था। इस बात के कोई सबूत नहीं मिलते कि वे सार्वजनिक राजनीतिक गतिविधियों में सक्रिय होना चाहती थीं। इसके पीछे उनकी छवि को एक ‘विदेशी’ के रूप में प्रचारित और स्थापित कर देना हो सकता है। लेकिन आखिर आज वे एक सबसे ताकतवर महिला के रूप में देश की राजनीति की दशा-दिशा तय कर ही रही हैं।

जो हो, मजबूरी में राजनीति में आई सोनिया को राहुल और प्रियंका गांधी में से किसी एक को राजीव गांधी की विरासत सौंपनी थी। लेकिन सोनिया की यह ‘ताकत’ इस रूप में सामने आई कि उन्होंने परंपरागत भारतीय मां की तरह ज्यादा काबिल दिख रही बेटी की जगह अपने बेटे को विरासत सौंपी। राहुल गांधी को विरासत सौंपना पारिवारिक मामला दिख रहा था। लेकिन क्या भारतीय जनमानस की पुत्र-अनुकूल भावनाओं का ‘खयाल’ रखना भी था?

लेकिन दूसरी ओर इंदिरा की छवि के रूप में देखी जाने वाली प्रियंका ने भी परंपरागत भारतीय स्त्रियों की तरह शादी और बच्चों को ही प्राथमिकता दी। प्रियंका गांधी ने कई बार सार्वजनिक तौर पर कहा कि उनकी पहली प्राथमिकता पति और बच्चे हैं; और कि वे अपनी घर की दुनिया में खुश हैं। यहां अचरज इस बात पर है कि जिस महिला को प्रधानमंत्री जैसा पद या भारतीय राजनीति के शीर्ष पर बैठने के अवसर मिल सकते हैं, वह ‘हाउस वाइफ’ बनने को ही क्यों तरजीह देती रही है। ज्यादा से ज्यादा अच्छी बहन की तरह राहुल गांधी की मदद करने के लिए प्रियंका कभी-कभी बरसाती मेंढ़क की तरह बाहर निकलती हैं और जरूरत खत्म होते ही अपने ‘घर की दुनिया’ में खुश होने लौट जाती हैं।

एक तरफ इंदिरा थीं, जिन्होंने गुलाम भारत में पढ़ाई-लिखाई की, लेकिन उन्होंने अपने स्व को ज्यादा अहमियत दी। दूसरी तरफ प्रियंका हैं, जो आजाद भारत के सबसे ताकतवर परिवार में पैदा हुईं, पली-बढ़ीं, जिन्हें राजनीति में शीर्ष हैसियत थाली में परोस कर मिल रहा है, वह हाउस वाइफ रहना पसंद कर रही है।

हालांकि उनकी समझ का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि बीबीसी हिंदी रेडियो सेवा में बात करते हुए एक बार उन्होंने श्रीलंका युद्ध के संदर्भ में यह टिप्पणी की थी कि ‘तुम्हारे आतंकवादी बनने में केवल तुम जिम्मेदार नहीं हो, बल्कि तुम्हारी पद्धति जिम्मेदार है जो तुम्हें आतंकवादी बनाती है।’ इससे पता चलता है कि मुद्दों की वे कितनी गंभीर समझ रखती हैं। लेकिन अपनी अस्मिता को लेकर वे कितनी लापरवाह हैं कि यह भी कह बैठती हैं कि ‘मैं यह हजारों बार दोहरा चुकी हूं कि मैं राजनीति में जाने को इच्छुक नहीं हूं।’ जाहिर है,अपनी अस्मिता को लेकर इतनी गैर-सजग प्रियंका कभी भी इंदिरा गांधी नहीं बन सकतीं।

भारतीय राजनीति के मर्दवादी माहौल में किसी महिला का शीर्ष पर पहुंचना आसान नहीं है। अगर महिलाएं कहीं शीर्ष हैसियत में पहुंच भी जाती हैं तो वहां अपनी लैंगिक विशेषता के साथ खुद को संतुलित बनाए रखने की राह बेहद मुश्किल है। ऊपर तक आते-आते महिलाओं की अस्मिता को इतनी बुरी तरह झकझोर दिया जाता है कि कभी-कभी तो उनमें व्यवहारगत समस्याएं भी दिखने लगती हैं जो उनके पतन का कारण भी बन जाती हैं।

ममता बनर्जी हो या जयललिता, इन्होंने सत्ता के शीर्ष पर जाने के क्रम में कितना दमखम लगाया, यह किसी से छिपा नहीं है। लेकिन अब राजनीति और प्रशासनिक ढर्रे से लेकर इनके व्यवहार तक में कैसी दिक्कतें आ चुकी हैं, इसे देख कर व्यवस्थावादी ताकतें खुश होती हैं। उनकी कार्यशैली और उनका बर्ताव उनके कट्टर अनुयायियों के अलावा आम जनमानस में भी खिसियाहट पैदा करता है। कई अवसरों पर ममता बनर्जी जहां एक घरेलू झगड़ालू महिला की तरह व्यवहार करने लगती हैं और हर समय एक असुरक्षाबोध से घिरी हास्यास्पद बयान देती रहती हैं तो जयललिता एक रहस्यमयी ‘अम्मा’ बन जाती हैं और अपने एक खास दायरे से बाहर निकलने की कोशिश भी नहीं करतीं। सुषमा स्वराज जिस खेमे की राजनीति करती हैं, उसमें अगर किन्हीं हालात में उन्हें शीर्ष पर जाने भी दिया गया यो भी वे हमेशा एक मोहरा रहेंगी और सामाजिक सत्तावाद उनका मूल एजेंडा रहेगा।


इंदिरा गांधी के बाद सिर्फ मायावती में वह ताकत दिखाई देती है जो सत्ता के शीर्ष पर जाकर अपनी ताकत और उसी रूप में गरिमा बनाए रखती हैं। तमाम आलोचनाओं, पूर्वाग्रहों-दुराग्रहों की तीखी अभिव्यक्तियों के बावजूद मायावती बाधाओं के सामने हबड़-तबड़ नहीं मचातीं, पूरी परिपक्वता से अपना धीरज बनाए रखती हैं और अपने विरोधियों का सामना करती हैं। मीडिया से लेकर अपने विरोधियों को मुंहतोड़ जवाब देने में मायावती सक्षम हैं। आप सवाल उठा सकते हैं, लेकिन वे भारतीय राजनीति के चरित्र को समझ कर उसके हिसाब से अपने कदम आगे बढ़ाती हैं। उन्होंने राज-व्यवस्था का कोई नया विकल्प नहीं खड़ा किया है, लेकिन अपनी क्षमता साबित की है।

इसमें कोई शक नहीं कि दलित सशक्तीकरण और सामाजिक न्याय की राजनीति के अध्याय में फिलहाल एक प्रतीक से आगे व्यवहार के स्तर पर कुछ ठोस कर पाना उनके लिए अभी बाकी है। लेकिन इतना तय है कि भारतीय राजनीति के मर्दवादी चाल-चेहरे और चरित्र में अगर कोई दूसरी इंदिरा गांधी या उससे आगे होगी तो वह मायावती ही होंगी। लेकिन देश के शीर्ष पद के लिए मायावती के नाम पर भारत की सत्तावादी आबो-हवा में दोहरी ‘पीड़ा’ घुल जाती है तो इसकी वजहें भी समझी जा सकती हैं!

Tuesday 28 August 2012

स्त्री अस्मिता के खिलाफ बाजार की बर्बर "फेयर एंड लवली" हिंसा


18 अगेन की यह हिंसा 

 



"एटीन अगेन...!" बाजार में पेश यह नया उत्पाद है उन महिलाओं के लिए जो पच्चीस-तीस-पैंतीस या शायद उसके ज्यादा उम्र की हो चुकी हैं। इस उत्पाद के प्रचार के लिए दो रूपकों का इस्तेमाल हो रहा है। पूरे पन्ने के अखबारी विज्ञापन में एक पूरा खिला गुलाब और (इसके इस्तेमाल के बाद) नीचे गुलाब की "सख्त" कली। यह क्रीम "पूरे खिले गुलाब" को "कली" बनाती है। सीधे और साफ शब्दों में कहें तो यह क्रीम आई है महिलाओं के जननांग के ढीलेपन को खत्म करने के लिए। टीवी पर इसके विज्ञापन में एक महिला गाना गाती है- "आई एम एटीन अगेन, फीलिंग वर्जिन अगेन।"

यानी अपनी "वर्जिनिटी गंवा चुकी" महिलाओं के लिए "वर्जिनिटी" की वापसी का इंतजाम। महिलाओं की अस्मिता के खिलाफ बाजार का यह नया और बेहद बर्बर मजाक है। अव्वल तो किसी भी समाज में "वर्जिनिटी" की अवधारणा ही स्त्री-विरोधी है। अरब से लेकर यूरोप तक इसी "कौमार्य" को बचाए रखने के लिए सदियों से महिलाओं को सींखचों में कसा गया है, उन्हें सिर्फ एक देह बनने के लिए मजबूर किया गया है। यह सामंती कुंठा आज के कथित आधुनिक युग में इस तरह सामने आई है जो सारे नारी आंदोलनों, स्त्री को देह नहीं मानने वाले संवेदनशील और चेतन समुदाय को मुंह चिढ़ा रही है।

अभी महिलाओं के जननांगों को गोरा बनाने वाली क्रीम ने बाजार में पांव रखे ही थे कि अब उसके "ढीलेपन" को खत्म करने का भी डंका बज गया। टीवी पर मॉडल गाने गा रही हैं, अखबारों में पूरे पेज का विज्ञापन है जो खिले गुलाब को कली बनाने की वकालत करता और "भरोसा" दिलाता है। इसका मूल स्वर यह है कि "चलो...! अपने पार्टनर के साथ अच्छा-खासा वक्त गुजार चुकी महिलाओं, अब तुम हीन भावना से ग्रस्त हो जाओ, क्योंकि "वर्जिन" होना सिर्फ महिलाओं की जिम्मेदारी है, एक पैंतालीस साल का पुरुष अपनी पत्नी से मांग कर सकता है कि वह फिर से कली बन जाए। उम्र का जो असर उस पर आया है, अब वह स्वीकार्य नहीं है।

"अब" इसलिए कि जब "कली" का विकल्प उपलब्ध होने के सपने दिखाए जा रहे हैं तो  "गुलाब" सरीखी महिलाएं क्यों स्वीकार की जाएं! "गुलाब" से "कली" की ओर वापसी नहीं करने वाली महिलाओं को यह विज्ञापन, उसके उत्पादक यह संदेश (धमकी) देते हैं कि अब अगर  "कली" नहीं बनीं तो अपने पार्टनर से खारिज होने को तैयार रहो। जो क्रीम "फूल" से "कली" बनाने के फर्जी दावे करे, कुदरत का उलटा चक्र चलाए, वह महिला के शरीर के साथ-साथ उसके समूचे मानसिक ढांचे पर कितना खतरनाक असर डालेगी, इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। लेकिन मर्दों की कुंठा के आगे महिलाओं की अस्मिता की क्या, उनकी सेहत तक की परवाह न अब तक की गई है और न की जाएगी। व्यवस्था हमेशा सत्ताधारी वर्गों की, सत्ताधारी वर्गों द्वारा और सत्ताधारी वर्गों के लिए होती है। शासित उसके लिए महज उपभोग की वस्तु हैं।

जननांगों को गोरा बनाने की क्रीम के खिलाफ कुछ महिला संगठनों ने विरोध भी जताया था। कई अखबारों और वेबसाइटों पर छपे लेखों में गुस्सा भी जाहिर किया गया। लेकिन अब तो लगता है कि इस तरह के उत्पादों की कंपनियां चाहती ही यही हैं कि उनके उत्पादों पर हो-हल्ला हो, खबरिया चैनलों पर बहस हो, ताकि औपचारिक विज्ञापनों के इतर भी उत्पाद का प्रचार हो। इधर देखा गया है कि ऐसे उत्पादों की उत्पादक कंपनियों से जुड़ी विज्ञापन एजेसियां पत्रकारों को प्रेरित करती हैं, उन्हें इसके लिए अच्छा-खासा लाभ मुहैया कराती हैं कि अच्छी या बुरी, इसकी खबर बनाओ और इस पर चर्चा चलाओ। पक्ष या विपक्ष, किसी भी तरह इसे चर्चा के केंद्र में लाओ। पत्रकार खुद महिला संगठनों को फोन करते हैं और कहते हैं कि इस तरह का उत्पाद बाजार में आया है, इस पर आपका क्या कहना है। महिला संगठनों की प्रतिक्रिया होती है कि "जी... ये तो महिला विरोधी है", और यह खबर छपती है। लेकिन अब सिर्फ महिला विरोधी कह कर भर्त्सना करने और विरोध-प्रदर्शन करने का भी वक्त खत्म हो गया। अब इन पर खूब "चर्चा" होती है, इसके नकारात्मक पहलुओं की बात की जाती है, लेकिन ऐसे उत्पादों और उनके विज्ञापनों के खिलाफ कोई कानून नहीं बनता है। इसे उपभोक्ताओं की इच्छा पर छोड़ दिया जाता है कि वे अपनाएं या खारिज करें।

बाजार के खिलाड़ी भारतीय समाज में पसरी कुंठाओं को बेचना बखूबी जानते हैं। इसमें सरकार भी अपना "अमूल्य" सहयोग देने में कोई कमी नहीं करती और मान कर चल रही है कि उसके नागरिक पूरी तरह परिपक्व और चेतना से लैस हो गए हैं जो ठगने और भ्रमजाल में फंसाने की कोशिश करने वालों को करारा जवाब देंगे। दरअसल, यह सरकारी चाल समाज की उस व्यवस्था को बनाए रखने की साजिश है, जिसमें उलझ कर कोई व्यक्ति या स्त्री अपने दिमाग को बाजार के हवाले कर दे और उस व्यवस्था में अपने शोषण-दमन और व्यक्तित्व के हनन को अपनी नियति मान कर मरती-जीती रहे।

स्वीकार्य होने के लिए न केवल महिलाओं का रंग गोरा होना चाहिए, बल्कि उसके निजी अंगों के रंग भी गोरे और अब उससे भी आगे "वर्जिन" होने चाहिए। विज्ञापनों में अब तक महिलाओं के लिए जो सबसे ज्यादा ग्लैमरस कॅरियर के विकल्प दिखाए गए हैं, वह है एयर होस्टेस का। गोरा बनाने की एक क्रीम तो लड़कियों को सिर्फ एयर होस्टेस बनाने के सपने दिखाती है। एक विज्ञापन में लड़की कहती है कि उसका सपना है आसमान में उड़ने का,  इसलिए वह एयर होस्टेस बनना चाहती है। वह क्रीम लगाती है और एयर होस्टेस बन जाती है। वह कहती है कि एयर होस्टेस बनने के बाद अब पूरा शहर उसे जानता है।

मुझे नहीं लगता कि हममें से कोई अपने शहर की किसी लड़की को महज इसलिए जानता है कि वह एयर होस्टेस है। फिर विज्ञापनों में एयर होस्टेस के कॅरियर का इतना महिमामंडन क्यों? काम तो किसी भी जेंडर के लिए कोई भी बुरा नहीं, लेकिन क्या यह एक ऐसा कॅरियर है जिसके लिए लड़कियां सपने देखें और उसे बचपन से इसके लिए तैयार किया जाए? ऐसा कोई विज्ञापन नहीं देखा है जिसमें कोई लड़का केबिन क्रू का सदस्य बनने के लिए बचपन से सपने देख रहा है। फिर यह विमान यात्रियों की सेवा का सपना "खूबसूरत" लड़कियों की आंखों में ही क्यों तैरता है? वैसे भी एयर इंडिया, इंडियन एयरलाइंस जैसी सरकारी विमानन कंपनियों के इतर ज्यादातर निजी विमानन कंपनियों में एयर होस्टेस की नौकरियां सुरक्षित नहीं होने के साथ जोखिम भरी भी हो चुकी हैं। जोखिम हवाई जहाजों में ड्यूटी की नहीं, आसपास मौजूद पुरुष कुंठाओं से। निजी विमानन कंपनियों में विमान परिचारिकाओं के शोषण की भी खबरें लगातार आती रही हैं।

हाल ही में गीतिका शर्मा की खुदकुशी की परतें खुल कर आ रही हैं। गीतिका भी महज अठारह साल की उम्र में विमान परिचारिका बनी थी और मुझे लगता है कि उसके शहर के साथ पूरे देश ने उसे तब जाना, जब वह अपने उस कंपनी के मालिक के शोषण से तंग आकर खुदकुशी कर चुकी थी। पूर्व एयर होस्टेस गीतिका की खुदकुशी की खबर के साथ मेरे दिमाग में फेयर एंड लवली का विज्ञापन गूंज रहा था- "मेरा पूरा शहर मुझे जानता है...।"

गोरी, छरहरी के बाद महिलाओं के लिए अब बाजार की नई चुनौती है "वर्जिन" जैसा अहसास। लेकिन "वर्जिन" होने के इसी सुख के लिए कोई कांडा जैसा शख्स अपनी पत्नी से ऊब कर किसी गीतिका को अपने जाल में इसलिए फंसाता है कि वह आकर्षक और "अठारह" की है। "फेयर एंड लवली" जैसे उत्पाद ने हमें गीतिका शर्मा का त्रासद अंत दिया है, "एटीन अगेन" जैसे उत्पाद का असर देखना अभी बाकी है।

गोरा बनाने की क्रीम से लेकर "वर्जिन" यानी "अक्षत यौवना" बनाने की इस क्रीम तक के जरिए बाजार ने महिलाओं को एक देह के रूप में ही स्थापित करने की कोशिश की है, जो पहले ही धर्म की मारी केवल देह के रूप में देखी जाती रही है।

Thursday 19 April 2012

चौतरफा चक्रव्यूह की चुनौतियों के बीच...

कांस्टीट्यूशन क्लब में 13 अप्रैल, 2012 को "मीडिया में लैंगिक भेदभावः मिथक या हकीकत" विषय पर आयोजित सेमिनार में पढ़ा गया पर्चा

एक सभ्य और विकासमान समाज अपने आगे बढ़ने के रास्ते खुद तैयार करता है, उसकी बाधाओं से निपटता है और एक तरह से किसी जड़ और सत्तावादी व्यवस्था का जनतांत्रिक विकल्प भी तैयार करता है। आज की इस बहस को मैं इसी की एक कड़ी मानती हूं। विषय का चुनाव शायद बहुत सोच-समझ कर किया गया-- "मीडिया में लैंगिक भेदभाव- मिथक या हकीकत।" मेरे मन में यह सवाल है कि किसके लिए मिथक और किसके लिए हकीकत। अगर कोई सत्ता उत्पीड़क है और अपने उत्पीड़क-चरित्र पर उंगली उठाने वालों की आवाज दबा नहीं पाती तो वह आरोपों को "मिथक" साबित करने में लग जाती है। लेकिन जो उत्पीड़न का शिकार तबका है, वह उत्पीड़न के हालात और उसकी वजहों को एक हकीकत के रूप में देखने का आग्रह करेगा। इस लिहाज से देखें तो आज की बहस के विषय का अपना महत्त्व है।

सवाल है कि वे कौन-सी स्थितियां या वजहें हैं, जिनके चलते इस विषय पर बात करने की जरूरत महसूस हुई। जाहिर है, हालात आदर्श तो नहीं ही हैं, बल्कि शायद अब घड़ा भरने लगा है और लाजिमी तौर पर सवाल उठने लगे हैं।

यों तो समूची व्यवस्था ही खुद को बनाए रखने के लिए अलग-अलग रूप में एक ही फार्मूले पर काम करती है, लेकिन समाज के अगुआ माने जाने वाले बौद्धिक तबकों से यह उम्मीद की जाती है कि वह कम से कम अपने ढांचे के भीतर प्रगतिशील, मानवीय और बराबरी पर आधारित मूल्यों को बढ़ावा देगा। मीडिया की ओर इसीलिए उम्मीद भरी निगाहों से देखा जाता है। मगर हम देख सकते हैं कि हमारे देश का मीडिया इस कसौटी पर कहां खड़ा है। प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में समाचार, विचार से लेकर फीचर, लेख या धारावाहिकों तक में कल्पनाशक्ति, विषय-वस्तु या प्रस्तुति तक के स्तर पर सामाजिक यथास्थिति में तोड़फोड़ मचाने वाली कवायदें शायद ही कहीं दिखती हैं। यानी ये इतने कम पैमाने पर हैं कि इसका असर लगभग नहीं के बराबर है। इस बात की पड़ताल किए जाने की जरूरत है कि आधुनिक और सभ्य होने के तमाम दावों के बीच यह स्थिति क्यों बनी हुई है?

माना जाता है कि भागीदारी से बड़े बदलाव संभव है। यह सही भी है। लेकिन मेरा मानना है कि हमारी व्यवस्था के हर खांचे में सबसे ऊपर बैठे लोगों का अब तक का जो इतिहास रहा है, उसमें जब तक फैसला लेने के अधिकारों का समान बंटवारा नहीं होता है, भागीदारी कोई बहुत बेहतर नतीजे नहीं दे सकती। कम से कम मीडिया में महिलाओं की स्थिति ने इसे साबित किया है। पिछले डेढ़-दो दशकों में प्रिंट और इससे ज्यादा इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में अच्छी-खासी तादाद में महिलाओं को जगह मिली है, लेकिन ज्यादातर अखबारों की खबरों या फीचर या टीवी चैनलों के कार्यक्रमों में स्त्री की जो छवि परोसी जाती है, उससे अपने नए रूप में सामाजिक यथास्थिति बहाल रहने की ही जमीन बनती है।

कोई भी संवेदनशील व्यक्ति यह समझता है कि पितृसत्तात्मक ढांचा और उसी बुनियाद पर पलता पुरुष मनोविज्ञान स्त्री की सभी मुश्किलों की जड़ है। भूमंडलीकरण का एक नतीजा इन जड़ों के खिलाफ हमला या इनसे मुक्ति हो सकता था। लेकिन पितृसत्ता की जड़ों का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि इसने उस भूमंडलीकरण और बाजार को भी अपना हथियार बना लिया और स्त्री को ज्यादा निर्मम तरीके से बाजार में खड़ा कर दिया है। और हमारे भारतीय मीडिया ने चूंकि कमोबेश यह मान लिया है कि वह भी महज बाजार है, तो जाहिर है वह भी एक व्यवस्था के तौर पर काम करेगा, जिसमें स्त्रियां सिर्फ मोहरा होंगी। बाजार के कई दूसरे क्षेत्रों की तरह मीडिया और खासतौर पर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने महिलाओं को भागीदारी तो दी, लेकिन वह क्या और कैसे काम करेगी, यह तय करने का अधिकार आमतौर पर उसके हाथ में आज भी नहीं है। यह बेवजह नहीं है कि महिलाओं से संबंधित किसी सकारात्मक खबर से लेकर उत्पीड़न या अत्याचर तक की खबरों या विश्लेषण में पुरुष कुंठा या दया-भाव दिखता है। मकसद सिर्फ यह होता है कि स्त्री की अस्मिता को उसकी देह या एक वस्तु के रूप में समेट दिया जाए। यह तब और ज्यादा त्रासद हो जाता है जब ऐसा करने वाले को खुद ही पता नहीं होता कि वह क्या कर रहा है। तमाम सवालों और महिलाओं की बढ़ती भागीदारी के बावजूद इस प्रवृत्ति पर कोई खास असर नहीं पड़ा है।

मेरे खयाल से लगभग सभी मीडिया संस्थानों में काम की जो स्थितियां या माहौल है, उसमें इससे अलग किसी तस्वीर की उम्मीद भी नहीं की जा सकती। अगर किसी महिला पत्रकार से बेहतर काम कराने के बजाय संस्थान के पुरुष सहकर्मियों या अधिकारियों की नजर सिर्फ इस बात पर रहती है कि कैसे उन पर दबाव डाल कर या प्रलोभन देकर मजबूर किया जाए, तो ऐसी स्थिति में महिला के सामने क्या विकल्प बचता है। या तो वह चुपचाप हालात से समझौता कर ले, नौकरी छोड़ दे या फिर आवाज उठाए। लेकिन विरोध करने या आवाज उठाने वाली महिलाओं को जिन मुश्किलों या त्रासदियों का सामना करना पड़ता है, "वाह-वाह मीडिया" के शोर में उसकी खबर तक कहीं नहीं आ पाती।

कुछ साल पहले नोएडा में प्रिया नाम की एक लड़की ने जिस तरह खुदकुशी की थी, वह तमाम टीवी चैनलों और अखबारों के लिए एक बहुत "बिकने" लायक मानी जाती, अगर वह खुद मीडिया में काम नहीं कर रही होती। वे कौन-सी वजहें रही होंगी कि खुदकुशी के पहले उसे चिट्ठी लिख कर अपनी बहन तक को बताना पड़ता है कि मीडिया में काम हरगिज न करना? सायमा सहर की शिकायत थी कि एक ऊंचे पद पर बैठा व्यक्ति अपने पद और हैसियत का धौंस दिखा कर उसे साथ शराब पीने के लिए दबाव डालता है और इस शिकायत का नतीजा यह होता है कि उल्टे सायमा को ही नौकरी से निकाल दिया जाता है। ऐसी न जाने कितनी घटनाएं दफन हो जाती होंगी, जिसमें कोई महिला पत्रकार अपने किसी वरिष्ठ या सहकर्मी की खिलाफ यौन-उत्पीड़न की शिकायत दर्ज करती भी है तो इसका खमियाजा उसे ही भुगतना पड़ता है। पुरुष को बख्श दिए जाने का तर्क हमेशा एक ही होता है कि उसकी नौकरी को कैसे मुश्किल में डाला जाए। यानी कि सिर्फ नौकरी बची रहे, इसलिए ऐसे पुरुषों को स्त्री की गरिमा के साथ खिलवाड़ करने की छूट मिल जाती है। शायद ही ऐसे मामले सामने आते हैं कि देश-दुनिया में यौन-उत्पीड़न के खिलाफ चीखने वाले मीडिया अपने संस्थान अपने भीतर किसी आरोपी के खिलाफ सख्त कदम उठाए।

मुझे तो लगता है कि कई बार जानबूझ कर महिला पत्रकारों के सामने ऐसी स्थितियां पैदा की जाती है, ताकि उसके सामने समझौता करने के सिवा कोई चारा ही न बचे। फरीदाबाद में रहने वाली रचना को दस-ग्यारह बजे रात तक काम करने को कहा जाता है, लेकिन उसे उतनी रात को अपने घर जाने के लिए ड्रॉपिंग या किसी तरह की सुविधा देने से इनकार कर दिया जाता है। यह तब होता है जब ओखला रेलवे स्टेशन पर वहशियों के हमले से वह किसी तरह खुद को बचा लेने के बाद अपने दफ्तर में अपना दुखड़ा रोती है। उसकी तकलीफ समझने के बजाय उसे नौकरी से निकाल दिया जाता है। इसके अलावा, बाहरी जोखिम की बात करें तो कोलकाता की शोमादास को, जिसके बारे में पुण्य प्रसून जी भी लिख चुके हैं, अपने विपक्षी खेमे की पत्रकार मान कर तृणमूल कांग्रेस में ममता बनर्जी का एक खास आदमी बलात्कार करा देने की धमकी दे देता है।

यह कोई अकेला उदाहरण नहीं है। अखबार या चैनल की ओर से सौंपे गए असाइनमेंट को फील्ड में पूरा करना एक पुरुष के लिए आसान और सहज हो सकता है, लेकिन एक महिला उसी असाइनमेंट को पूरा करने निकलती है तो उसके सामने कई तरह की चुनौतियां एक साथ खड़ी हो जाती है, सिर्फ इसलिए कि वह महिला है। किसी का इंटरव्यू करना हो, कोई खबर निकालना हो, या किसी रैली, बंद, आंदोलन या भीड़ की रिपोर्टिंग करनी हो, एक महिला पत्रकार उसे पूरा करने तक लगातार एक जोखिम से गुजरती है। यह स्थिति किसकी बनाई हुई है और इससे निपटने के क्या उपाय हो सकते हैं? पता नहीं कितनी महिला पत्रकार इस तरह के खतरों के बाच मरते-जीते काम कर रही होती हैं। मगर न केवल बाहर, बल्कि भीतर का तंत्र भी उसे महज शिकार की तरह ही देखता है।

कोई कह सकता है कि महिला पत्रकारों के उत्पीड़न और जोखिम के हालात आम नहीं हैं। लेकिन ये बातें सिर्फ वहीं तक नहीं है कि मीडिया हाउसों की भीतर की शिकायतें बड़ी मुश्किल से फूट पाती हैं, और मामला यहां "पकड़ा गया सो चोर है" के फार्मूले के हिसाब से "सब कुछ सुहाना" में दबा रह जाता है। अगर वेब मीडिया नहीं होता, तो जो इक्के-दुक्के मामले सामने आ पाए, शायद वे भी नहीं आ पाते। सवाल है कि अगर मामले इक्के-दुक्के भी हैं तो वह चिंता का मसला क्यों नहीं होना चाहिए। दूसरे, क्या सचमुच ऐसे कुछ मामलों के आधार पर कोई नतीजा निकालना ठीक नहीं है? यह सवाल कोई इसलिए भी उठा सकता है, क्योंकि अभी तक मीडिया में महिलाओं के कामकाज की स्थितियों को लेकर कोई ठोस अध्ययन सामने नहीं आया है। लेकिन अच्छी बात है कि एक शोध-छात्रा सुनीता मिनी ने दिल्ली सहित समूचे राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में "इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में महिला पत्रकारों की स्थिति" पर केंद्रित एक व्यापक सर्वेक्षण किया है। इस अध्ययन में जो निष्कर्ष सामने आए हैं, वे मीडिया में महिलाओं के साथ भेदभाव को महज एक मिथ या आरोप मानने वालों को आईना दिखाते हैं।

अव्वल तो अभिव्यक्ति की आजादी का झंडा उठाने वाले मीडिया संस्थानों के भीतर अपनी तकलीफ का बयान करना भी कितना मुश्किल और घातक है, यह शायद किसी से छिपा नहीं है। इसके बावजूद अगर लगभग तिरेपन प्रतिशत महिलाएं साफ तौर पर यह कहती हैं कि सहकर्मियों या उच्चाधिकारियों का उनके साथ बदतमीजी से पेश आना, उन पर फब्तियां कसना और अश्लील मजाक करना या उन्हें मानसिक रूप से परेशान करना आम है, तो यह इस बात का सबूत है कि हमारे आसपास बैठा पुरुष दरअसल मानसिक रूप से पिछड़ा और असभ्य है। अगर करीब सैंतीस प्रतिशत महिला पत्रकार कहती हैं कि शोषण की शिकार महिला पत्रकारों की शिकायत पर कोई सुनवाई नहीं होती या नौकरी खोने के डर से ज्यादातर महिलाएं खुल कर विरोध भी नहीं कर पातीं; पैंसठ फीसद को शिकायत है कि मेहनत और योग्यता के बावजूद महिला पत्रकारों को तनख्वाह पुरुषों के मुकाबले कम दी जाती है: तकरीबन तिहत्तर प्रतिशत मानती हैं कि बारह-चौदह घंटे काम करने के अलावा श्रम कानूनों का खुला उल्लंघन होता है; लगभग आधी महिला पत्रकारों को लगता है कि अगर कोई महिला खूबसूरत नहीं है तो उसे बहुत संघर्ष करना पड़ता है या उनके प्रोमोशन को शक की निगाह से देखा जाता है और तीन-चौथाई से ज्यादा मानती हैं कि महिला पत्रकारों को चुनौतीपूर्ण और महत्त्वपूर्ण जिम्मेवारियां नहीं दी जातीं तो इसका मतलब है कि हमारा मीडिया भी सोच और व्यवहार के पैमाने पर एक पिछड़े हुए सामंती समाज के ढांचे से अब तक अपना कोई अलग चेहरा नहीं गढ़ सका है।

सुनीता का बहुत शुक्रिया कि उन्होंने काफी मेहनत से ये तथ्य निकाले हैं। इस मसले पर शायद और काम करने की जरूरत है।

इसी अध्ययन में इस कड़वी हकीकत की एक बार फिर पुष्टि हुई है कि समूचे समाज का प्रतिनिधित्व करने के दावे के बीच पिछड़े वर्गों, अनुसूचित जाति-जनजाति वर्ग की महिलाओं का चेहरा मीडिया में कहां है। समूचे मीडिया में इन वर्गों की महिलाओं की नगण्य मौजूदगी क्या कुछ तल्ख सवाल नहीं खड़े करती है? क्या इन सवालों से सिर्फ यह कह कर बचा जा सकता है कि इन वर्गों से महिलाएं आती ही नहीं हैं और सवाल योग्यता का भी है?

मेरा मानना है कि "मेरिटवाद" का पाखंड अब खुल चुका है और रही बात इन वर्गों की महिलाओं के खुद आगे नहीं आने की, तो समाज में किसी भी अगुआ कहे जाने वाले तबके को यह बहाना बनाने का हक नहीं है।

सवाल है कि दूसरे तमाम क्षेत्रों की तरह हमारा मीडिया भी आधुनिकता के लबादे के भीतर उसी सामंती मन-मिजाज से महिलाओं को देखता और बरतता है, तो उसके आउटपुट में, सामने आने वाले काम में महिलाओं को क्या और कैसी जगह मिलेगी? महिलाओं की "सकारात्मक" तस्वीरों के नाम पर हमारे मीडिया के पास अगर कुछ है तो सोनिया गांधी, ऐश्वर्या राय या इंदिरा नूई जैसी कुछ "पावर वुमेन", जिसके जरिए कुछ अमूर्त सपने परोस कर अपनी जिम्मेदारी पूरी समझ ली जाती है। दूसरी ओर, महिलाओं के खिलाफ सबसे त्रासद अपराधों के ब्योरे में भी व्यवस्था को बदलने के बजाय व्यवस्था को मजबूत करने और उसे सींचने वाले शब्द ही चुने जाते हैं। वे कौन-सी वजहें हैं कि एक तरफ सरकारी पैमाने पर अंग्रेजी में "रेप" शब्द को "सेक्शुअल असॉल्ट" में बदल कर उसे और गंभीर अपराध बनाने और उसका दायरा बढ़ाने की कवायद चल रही है, तो हिंदी में बलात्कार जैसे अपराध के लिए "दुष्कर्म" और यहां तक कि "ज्यादती" जैसे शब्दों का इस्तेमाल धड़ल्ले से किया जा रहा है। जेब काटना भी दुष्कर्म होता है और किसी से मीठे मजाक करने को भी ज्यादती कहते हैं। तो क्या हमारे मीडिया के एक हिस्से ने यह मान लिया है कि बलात्कार को जेब काटने या मीठे मजाक करने के बराबर करके देखा जा सकता है? अगर हां, तो इसके पीछे कौन-सी मानसिकता काम कर रही है?

एक तो बड़ी समस्या है कि तमाम आधुनिकता, पढ़ाई-लिखाई और समझदारी के दावे के बावजूद हममें से ज्यादातर को अपनी जड़ परंपराओं से प्यार करना अच्छा लगता है, बिना इस बात का खयाल किए कि कौन-सी परंपरा किस तरह की मानसिकता को बनाए रखने में मदद करती है। इसलिए यह स्वाभाविक है कि पितृसत्तात्मक व्यवस्था में उसी "माइंडसेट" को निबाहते हुए महिलाएं भी अपनी ही मुश्किल की वजहों की पहचान नहीं कर पातीं।

यानी स्त्री एक तरह से चौतरफा चक्रव्यूह में घिरी हुई हैं। पलते-बढ़ते हुए उसे एक व्यक्ति के बजाय स्त्री बनना है; काम करते हुए उसे याद रखना है कि वह स्त्री है; नतीजे देते हुए उसे एक अच्छी स्त्री बन कर दिखाना है और इस तरह उसे महज पितृसत्ता और पुरुष व्यवस्था का एक औजार भर बन कर रह जाना है। उसने ये शर्तें अगर ठीक से निबाह लीं तो फिर सब कुछ सहज रहेगा!

और जो लोग मीडिया पर थोड़ा करीब से निगाह रखते हैं, वे जानते हैं कि स्त्री को लेकर हमारे मीडिया ने व्यवस्था से अलग अपना कोई अलग चेहरा अब तक पेश नहीं किया है। और इन हालात में महिलाओं या उनकी छवि को लेकर मीडिया का जो रवैया रहा है, उससे अलग हो भी कैसे सकता है?

यानी महिलाओं की लड़ाई किसी एक मोर्चे पर नहीं है। उसके सामने अगर व्यवस्था की चालबाजियां हैं जो उसे एक "आज्ञाकारी" महिला के रूप में देखना चाहती है तो दूसरी ओर संस्कृति से मिला उसका अपना वह "माइंडसेट" भी है जो स्त्री और पीड़ित बनाए रखता है। सोचना उन महिला पत्रकारों को भी है जो इस चुनौतियो से भरे पेशे को चुनती तो हैं, लेकिन अपने दोयम समझे जाने की वजहों पर गौर नहीं करतीं। और जब तक समाज की तरह मीडिया के ढांचे में भी महिला को एक वस्तु की तरह देखा जाएगा, तक तक मीडिया को समाज का एक जिम्मेदार हिस्सा मानना थोड़ा मुश्किल होगा। शायद यह ध्यान रखने की जरूरत है कि आखिर हम सबके घरों में कोई बच्ची होगी, जो पढ़-लिख रही होगी और आगे वह शायद खुली दुनिया में अपनी जगह बनाने के लिए घर से बाहर निकलेगी!

Friday 20 January 2012

सत्ताओं की बिसात पर सरोकार...


जेएनयू में 11 अक्तूबर, 2011 को "सरोकारों की सरमाएदारी और मीडिया" पर आयोजित सेमिनार में विषय प्रवर्तन करते हुए







साथियों,

‘अगर आप सावधान नहीं हैं, तो अखबार आपके भीतर उन लोगों के खिलाफ नफरत भर देंगे जो दमन के शिकार रहे हैं और आप उन लोगों से प्यार करने लगेंगे जो दमन करते रहे हैं।’

मॅल्कम ने ये बातें कब और किस संदर्भ में कही थीं, यह तो पता नहीं। लेकिन मौजूदा दौर की पत्रकारिता को जरा-सी ईमानदारी से देखने की कोशिश की जाए तो मॅल्कम की ये चंद लाइनें अपने सबसे तल्ख़ असर के साथ मौजूद दिखती हैं।

हम एक ऐसे समाज के हिस्से हैं, जो अमूमन अतीतजीवी है और या तो यही सोच कर कुंठित होता है कि ‘बीता हुआ सब कुछ अच्छा था’, या फिर ‘भविष्य सुनहरा होगा’ जैसे शिगूफों से खुद को संतोष देता रहता है। लेकिन अच्छा है कि ज्ञान और दृष्टि पर एकाधिकार की साजिशों की पहचान अब रोज-ब-रोज आसान होती जा रही है और विचारों के लगातार टूटते दायरों ने समाजी आबो-हवा में जो गर्मी पैदा की है, उससे अतीत के बहुत सारे धुंधलके अब छंटने लगे हैं।

यों इन धुंधलकों की सफाई के लिए हम जिन पर भरोसा किए बैठे रहे, दरअसल, उन्होंने ही इसे और ज्यादा गहरा किया। सरोकारों की चादर ओढ़े उन सरमाएदारों की पहचान बहुत मुश्किल काम नहीं है, अगर मॅल्कम की यहां रखी गई बातों को हम यों ही उछाला गया कोई जुमला न समझ लें।

तो भारत का मीडिया कब अपने सरोकारों को लेकर ईमानदार रहा है, इस पर बात करते समय हमें शायद यह ध्यान रखना चाहिए कि इसके सरोकार आखिर रहे हैं क्या हैं। मीडिया को संचालित करने की जिम्मेदारी आमतौर पर जिन सामाजिक वर्गों के हाथ में रही है, उसके लिए सरोकारों के मायने क्या रहे हैं? आज बाजार का एक हथियार बन चुके मीडिया से यह उम्मीद तो बेमानी है कि मुनाफे के मकसद को वह कभी थोड़ी देर के लिए भूल भी जाएगा, लेकिन तब खुद को बाजार का मोहरा या खिलाड़ी मानने के बजाय वह कहीं भी अपने मीडियाई सरोकार का झंडा थामे क्यों दिख जाता है?

सरोकारों की सरमाएदारी के मूल स्रोत क्या कहीं और से भी निकलते हैं? सामाजिक-राजनीतिक या ऐतिहासिक रूप से दबाए गए तमाम पक्षों और हाशिये के जिन सवालों को सतह पर और केंद्र में लाकर रख देना मीडिया के जो मूल सरोकार होने चाहिए थे, वे सब सिरे से गायब क्यों दिखते हैं? मुनाफे की मंजिल के बरक्स ये हकीकतें क्या सिर्फ संयोग हैं, या फिर मीडिया के सरोकार किसी और स्रोत से संचालित होते हैं?

वे कौन-सी वजहें हैं कि मीडिया अपने परदों और पन्नों के लिए जिन खबरों का चुनाव करता है, वे इन कसौटियों पर कसी जाती हैं कि इससे आमदनी कितनी हो रही है या फिर वह व्यवस्था को बचाए रखने में कितनी मददगार साबित होती है? दो से पांच हजार के किसी मजमे को जन-सैलाब और हक को रहम में तब्दील करते एनजीओ कहे जाने वाले गिरोहों के शक्ति प्रदर्शन को देश की आजादी की दूसरी लड़ाई बताने वालों को दो-तीन या चार लाख लोगों का विरोध जताना केवल सड़क जाम का कारण क्यों लगने लगता है?

क्या मीडिया के पन्ने और परदे केवल आभिजात्य वर्गों और उनके तौर-तरीकों के ब्योरे परोसने के लिए आरक्षित कर दिए गए हैं? अगर नहीं, तो मीडिया के पन्ने और परदे मानस चक्रवर्ती जैसे सामंतों के लिए कैसे सुलभ हो जाते हैं जो समूची स्त्री जाति और दलितों को अपमानित करने की मंशा से वीभत्सतम भाषा में अपनी सामाजिक कुंठाओं की उल्टी करता है और प्रगतिशील कहे जाने वाले अखबार का संपादक उसका बचाव करता है?

मीडिया आज इस हैसियत में है कि वह चाहे तो किसी चुनी हुई सरकार को चंद रोज में ‘जंगल राज’ की पहचान दे दे और चाहे तो किसी ‘पाखंड राज’ को ‘सुशासन ऑफ द इयर’ या ‘सुशासन ऑफ द सेंचुरी’ का सर्टिफिकेट जारी कर दे! तो जिस मीडिया का काम नौ सुखी लोगों के बरक्स एक दुखी व्यक्ति की आवाज बनना था, वह नौ दुखी लोगों को दुनिया के बोझ की तरह पेश करके किसे खुश करने की कोशिश में है?

किसी टीवी चैनल या अखबार का मालिकाना हक़ किसी खास व्यक्ति के पास हो सकता है। वह इसे ‘घाटा सह कर’ नहीं चलाने का तर्क दे सकता है। लेकिन इस मासूम तर्क के सहारे अखबार या चैनलों के एक सार्वजनिक मंच होने की हकीकत और उसे निबाहने की जिम्मेदारी के सवालों को क्या दरकिनार किया जा सकता है?

लेकिन क्या कारण है कि ज्यादातर अखबारों और चैनलों की तमाम प्रस्तुतियों पर उनके सामाजिक-राजनीतिक पूर्वाग्रह हावी दिखते रहे हैं? जिन मंचों पर हाशिये के सवालों को लेकर घनघोर बहसें आमंत्रित कर अलग-अलग पैमाने पर बदलाव की जमीन तैयार करनी चाहिए थी, वहां मामूली असहमतियों तक को जगह क्यों नहीं मिल पाती?

क्या ये ही वे हालात नहीं हैं, जिसने बहुत सारी अभिव्यक्तियों के लिए लोगों को वैकल्पिक माध्यमों का सहारा लेने पर मजबूर किया है? बहुत सारे ब्लॉगरों, निजी वेबसाइटों या फेसबुक जैसी सोशल नेटवर्किग वेबसाइटों के पन्नों पर सूचनाओं और बहसों का जो विस्फोट हो रहा है, क्या वे तथाकथित मुख्यधारा के मीडिया के घोषित सरोकार नहीं है? इन सबके बरक्स कई राज्यों में लगभग सरकारी मुखपत्र या वकील की भूमिका निभा रहे मीडिया के सामने सिर्फ मुनाफा कमाने की मजबूरी का तर्क कायम दिखता है। लेकिन क्या इसकी आड़ में कोई सामाजिक राजनीति भी अपने खेल-खेलती है?

बिहार सरकार के दो कर्मचारियों ने किन मजबूरियों के तहत ‘फेसबुक’ के अपने निजी पन्नों पर सरकार की नीतियों के बारे में अपनी अलग राय जाहिर की? आजाद भारत के इतिहास में शायद ऐसा पहली बार हुआ है कि ‘फेसबुक’ पर राय जाहिर करने के एवज बिहार सरकार ने अपने दोनों कर्मचारियों के खिलाफ दमनकारी कदम उठाए। लेकिन अक्सर अभिव्यक्ति की आजादी का राग अलापने वाले तथाकथित मुख्यधारा के मीडिया के लिए यह मुद्दा क्यों नहीं बना?

ऐसा कैसे और किन कारणों से हो गया कि हमारे जिस मीडिया को हमेशा ही सत्ता के खिलाफ एक ताकतवर विपक्ष की भूमिका में होना था, वह इक्का-दुक्का अपवादों को छोड़ दें, तो सत्ता का मुखापेक्षी और ठकुरसुहाती की हैसियत में खड़ा खुश दिखाई देता है?

मीडिया की दिखने वाली इस दिशाहीनता का दौर क्या सचमुच इतना ही मासूम है? या फिर मुनाफे की मंजिल के बरक्स सामाजिक-राजनीतिक सत्ताओं की कोई बिसात बिछी हुई है, जिसमें सरोकारों को सिर्फ मोहरे के तौर पर इस्तेमाल होना है?

इन सबके बीच बेहद शांत तरीके से एक खतरनाक प्रतिक्रिया यह सामने आई है कि जिन-जिन वर्गों को मीडिया ने सचेत तौर पर नजरअंदाज किया या वाजिब जगह नहीं दी, उन्होंने अब अपनी ओर से मीडिया को खारिज करना शुरू कर दिया है। इधर कई बड़े और सफल आयोजनों की न तो किसी अखबार या चैनल में कवरेज करने के लिए आमंत्रण भेजा गया, न प्रेस विज्ञप्ति तक भेजी गई। यह स्थिति किसके लिए डरने की बात है?

ये कुछ सवाल हैं जिन पर बात करना शायद इसलिए भी जरूरी है, क्योंकि अखबार या टीवी कोई ऐसी चीज नहीं है, जिनका मालिकाना हक उन्हें मुद्दों के साथ बेईमानी करने की छूट दे देता है। जेएनयू में किसी मुद्दे पर बातचीत से उम्मीद यही की जाती है कि इससे बहस की एक जमीन तैयार हो...।

जन-सरोकारों से बहुत दूर है देश का मीडिया...


राज वाल्मीकि

सरोकारों की सरमाएदारी और मीडिया

11 अक्तूबर, 2011

स्थान- जेएनयू एसएल कमिटी रूम





दिल्ली मीडिया रिसर्च एंड पब्लिकेशन सेंटर और दिल्ली यूनियन ऑफ जर्नलिस्ट की ओर से 11 अक्टूबर 2011 को जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में स्कूल ऑफ लैंग्वेजेज के कमिटी रूम में 'सरोकारों की सरमाएदारी और मीडिया' विषय पर सेमिनार का आयोजन हुआ।

कार्यक्रम की शुरुआत में डीयूजे के महासचिव एसके पांडेय ने संगठन के बारे में विस्तार से बताया और कहा कि पत्रकारिता के क्षेत्र में होने वाली गतिविधियों पर लगातार हमारी नजर रहती है और हम चाहते हैं कि मुद्दों पर बहस हो। इस मकसद से हमने समय-समय पर सेमिनारों या बहसों का आयोजन किया है, ताकि एक स्वस्थ और ईमानदार पत्रकारिता की परंपरा कायम की जा सके। 'सरोकारों की सरमाएदारी और मीडिया' पर बातचीत इसी की एक कड़ी है। उम्मीद है कि इससे कुछ ऐसी बातें निकल कर आएंगी जो भविष्य की पत्रकारिता के उपयोगी हो।

कार्यक्रम के प्रारंभ में मृणाल वल्लरी ने विषय प्रवर्तन के रूप में अपना व्याख्यान दिया। उन्होंने मॅल्कम के एक वक्तव्य का उद्धरण देते हुए कहा कि 'अगर आप सावधान नहीं हैं, तो अखबार आपके भीतर उन लोगों के खिलाफ नफरत भर देंगे जो दमन के शिकार रहे हैं और आप उन लोगों से प्यार करने लगेंगे जो दमन करते रहे हैं।' उन्होंने कहा कि हम एक ऐसे समाज के हिस्से हैं, जो अमूमन अतीतजीवी है और या तो यही सोच कर कुंठित होता है कि "बीता हुआ सब कुछ अच्छा था" या फिर "भविष्य सुनहरा होगा" जैसे शिगूफों से खुद को संतोष देता रहता है। लेकिन अच्छा है कि ज्ञान और दृष्टि पर एकाधिकार की साजिशों की पहचान अब रोज-ब-रोज आसान होती जा रही है और विचारों के लगातार टूटते दायरों ने समाजी आबो-हवा ने जो गर्मी पैदा की है, उससे अतीत के बहुत सारे धुंधलके अब छंटने लगे हैं।

उन्होंने भारतीय मीडिया के सरोकारों की ईमानदारी के संदर्भ में कहा कि इस पर बात करते समय हमें शायद यह ध्यान रखना चाहिए कि इसके सरोकार आखिर रहे हैं क्या हैं। मीडिया को संचालित करने की जिम्मेदारी आमतौर पर जिन सामाजिक वर्गों के हाथ में रही है, उसके लिए सरोकारों के मायने क्या रहे हैं? उन्होंने कहा कि सरोकारों की सरमाएदारी के मूल स्रोत क्या कहीं और से भी निकलते हैं? सामाजिक-राजनीतिक या ऐतिहासिक रूप से दबाए गए तमाम पक्षों और हाशिये के जिन सवालों को सतह पर और केंद्र में लाकर केंद्र में रख देना मीडिया के जो मूल सरोकार होने चाहिए थे, वे सब सिरे से गायब क्यों दिखते हैं? मुनाफे की मंजिल के बरक्स ये हकीकतें क्या सिर्फ संयोग हैं, या फिर मीडिया के सरोकार किसी और स्रोत से संचालित होते हैं?

उन्होंने मीडिया के पूर्वाग्रहपूर्ण रिपोर्टिंग पर सवाल उठाते हुए कहा कि दो से पांच हजार के किसी मजमे को जन-सैलाब और हक को रहम में तब्दील करते एनजीओ कहे जाने वाले गिरोहों के शक्ति प्रदर्शन को देश की आजादी की दूसरी लड़ाई बताने वालों को दो-तीन या चार लाख लोगों का विरोध जताना केवल सड़क जाम का कारण क्यों लगने लगता है? सुश्री वल्लरी ने एक सार्वजनिक मंच के रूप में मीडिया के मनमाने रवैये पर टिप्पणी की कि किसी टीवी चैनल या अखबार का मालिकाना हक़ किसी खास व्यक्ति के पास हो सकता है। वह इसे घाटा सह कर नहीं चलाने का तर्क दे सकता है। लेकिन इस मासूम तर्क के सहारे अखबार या चैनलों में एक सार्वजनिक मंच होने की हकीकत और उसे निबाहने की जिम्मेदारी के सवालों को क्या दरकिनार किया जा सकता है?

उन्होंने मुख्यधारा के मीडिया के रवैए के कारण लोगों को दूसरे विकल्पों की शरण लेने के संदर्भ में कहा कि क्या ये ही वे हालात नहीं हैं, जिस बहुत सारी अभिव्यक्तियों के लिए लोगों को वैकल्पिक माध्यमों का सहारा लेने पर मजबूर किया है? बहुत सारे ब्लॉगरों, निजी वेबसाइटों फेसबुक जैसी सोशल नेटवर्किंग वेबसाइटों के पन्नों पर सूचनाओं और बहसों का विस्फोट हो रहा है, क्या ये तथाकथित मुख्यधारा के मीडिया के घोषित सरोकार नहीं है? लेकिन इन सबके बरक्स कई राज्यों में लगभग सरकारी मुखपत्र या वकील की भूमिका निभा रहे मीडिया के सामने सिर्फ मुनाफा कमाने की मजबूरी है? या फिर इसके पीछे एक सामाजिक राजनीति भी अपने खेल-खेलती है?

उन्होंने एक खतरनाक संकेत की ओर इशारा किया कि जिन-जिन वर्गों को मीडिया ने सचेत तौर पर नजरअंदाज किया या वाजिब जगह नहीं दी, उन्होंने अब अपनी ओर से मीडिया को खारिज करना शुरू कर दिया है। इधर कई बड़े और सफल आयोजनों की न तो किसी अखबार या चैनल में कवरेज करने के लिए आमंत्रण भेजा गया, न प्रेस विज्ञप्ति तक भेजी गई। यह स्थिति किसके लिए डरने की बात है?






इसके बाद कार्यक्रम के संचालन का जिम्मा संभालने वाले समर ने वरिष्ठ पत्रकार कुलदीप नैयर को अपनी बात रखने का आग्रह किया। श्री नैयर ने कहा कि हमारे समय में मालिक हमारे काम में दखलअंदाजी नहीं करते थे। पत्रकारिता पर नियंत्रण के संदर्भ में उन्होने अपनी राय दी कि मुझे पीत-पत्रकारिता या गैरजिम्मेदाराना पत्रकारिता भी मंजूर है, पर पत्रकारिता पर सरकार का नियंत्रण मंजूर नहीं। किसी भी शोषण के खिलाफ लड़ाई मैदान में लड़नी होती है, लेकिन आज समस्या यह है कि कोई लड़ने को तैयार नहीं है। उन्होने कहा कि जिस दिन तुम सच्चाई का खून होते देखो और कुछ न बोलो तो उसी दिन से तुम्हारी मृत्यु होनी शुरू हो गई। उन्होने कहा कि पत्रकारिता एक ताकतवर पेशा है। आज मीडिया को धर्मनिरपेक्षता, समाजवाद, आदर्शवाद और लोकतांत्रिक मूल्यों को अपनाना होगा, क्योंकि देश को इनकी जरूरत है।

जनसत्ता में वरिष्ठ पत्रकार और अपराध-विज्ञान में विशेषज्ञता रखने वाले सुधीर जैन ने पावर प्वाइंट के जरिए अपनी बात रखी। उन्होने पत्रकारिता की जिम्मेदारियों का जिक्र करते हुए कहा कि हमें सरकार के खिलाफ होना क्यों जरूरी है? सरकार हम ही बनाते हैं, लेकिन अगर वह ठीक से काम नहीं करती तो उसे ठीक से काम करने के लिए उस पर दबाव बनाना जरूरी है। सुधीर जी ने कहा कि बहुत से मुद्दे हैं, जो शिद्दत से उठाए जाने चाहिए। लेकिन मीडिया उसे उठाता नहीं। बेरोजगारी, गरीबी, सांप्रदायिकता जैसे अहम मुद्दों को नजरअंदाज करके ध्यान भटकाने वाले मुद्दों की दुकान सजाने का ही नतीजा है कि आज मीडिया की कार्यशैली को लेकर सवाल उठ रहे हैं। उन्होंने कहा कि आज मीडिया ने लगभग तमाम मुद्दों का व्यवसायीकरण कर दिया है। और यही वजह है कि उसकी विश्वसनीयता को लेकर संदेह खड़े हो रहे हैं।

जेएनयू में प्रोफेसर और समाजशास्त्री डॉ विवेक कुमार ने कहा कि आज के ज्यादा मीडिया विश्लेषकों को प्रगतिशीलता के खोल में लिपटे जाति पर आधारित भेदभाव कोई प्रमुख मुद्दा नहीं लगता। इसलिए वे अपने प्रमुख मुद्दों में इसे शामिल नहीं करते। जबकि खुद सरकार के आंकड़े बताते हैं कि पिछले दस वर्षों में दलितों के खिलाफ तीन लाख सत्तर हजार उत्पीड़न की वारदातें हुई हैं। पर मीडिया के लिए यह महत्त्वपूर्ण नहीं है। अगर किसी मजबूरी के तहत ब्योरा देना पड़ भी जाए तो वह जातीय उत्पीड़न की बात नहीं करता। उन्होंने कहा कि 1970 के दशक में पूरे भारत में दलितों के आंदोलन चल रहे थे, पर मीडिया ने इन पर कोई ध्यान नहीं दिया। आज चालीस साल बाद भी स्थिति में कोई बदलाव नहीं आया है। आज भी मीडिया दलितों की नकारात्मक छवि दिखाता है। दलित महिलाओं के साथ बलात्कार और दलितों पर अत्याचार की घटनाओं को कभी-कभी वह दलितो पर अहसान करने के लहजे में थोड़ी-सी जगह दे देता है, जबकि यह उसकी सबसे महत्त्वपूर्ण जिम्मेदारी होनी चाहिए ती। असलियत तो यह है कि इस तरह की खबरों में बड़ी चालाकी से दलितों के खिलाफ उत्पीड़न की घटनाएं दबा दी जाती है और उत्पीड़क वर्गों को बचा लिया जाता है। दलित तो विक्टिम या पीड़ित हैं। लेकिन जब दलित आरक्षण या अपने सम्मान की बात करता है तो उसे मीडिया उसे ऐसे दिखाता है जैसे वे सवर्णों के साथ ज्यादती कर रहे हों। जबकि दलित केवल अपने संविधान प्रदत्त अधिकारों को लेने की मांग करते हैं।

वरिष्ठ पत्रकार दिलीप मंडल ने कुलदीप नैयर के विचारों से असहमत होते हुए कहा कि कुलदीप जी अपने जमाने की पत्रकारिता को ऐसे बता रहे थे जैसे वह पत्रकारिता का स्वर्णयुग था। असल में ऐसा कुछ भी नहीं था। पहले भी चापलूसी और अपने संपादक से लेकर समाज और राजनीति के सत्ताधारी वर्गों को खुश करने वाली पत्रकारिता होती थी, आज भी वही हाल है। उन्होंने कहा कि इस देश का मीडिया शहरी है, एलिट है, हिन्दू समर्थक है, सवर्ण है, कॉरपोरेट है। अन्ना हजारे के अनशन को मीडिया ने ऐसे दिखाया जैसे पूरा देश अन्ना के साथ है। जबकि हकीकत यह है कि अन्ना के आंदोलन में दलितों, पिछड़े तबकों, महिलाओं और अल्पसंख्यकों को को कोई जगह नहीं मिली और न इन वर्गों ने अन्ना का समर्थन किया। जिस तरह अन्ना हजारे के आंदोलन ने दलित-पिछड़ी जातियों के सवालों को साजिशन नजरअंदाज किया, उसे मीडिया ने छिपाने की कोशिश की, लेकिन लोग समझ रहे थे। उन्होंने कहा कि समाज के सत्ताधारी वर्गों के अलावा हमारे देश का मीडिया आमतौर पर बाजार के उतार-चढ़ावों से प्रभावित होता है। शेयर बाजार में अगर किसी क्षेत्र के शेयर भाव गिरने लगते हैं तो वह उसी हिसाब से उससे जुडी खबरों को अपने टीवी चैनल या अखबार में जगह देते हैं। हकीकत यह है कि मीडिया नब्बे प्रतिशत लोगों की बात ही नहीं करता। दलितों के मुद्दों से मीडिया को कोई सरोकार नहीं है। इसका कारण यही है कि टीवी चैनलों के न्यूज रूम में ऊंची कही जाने वाली जातियों का जबर्दस्त वर्चस्व है। आज का मीडिया विज्ञापनदाताओं का है, क्योंकि मीडिया की कमाई विज्ञापनों से होती है। ऐसे मे स्वाभाविक रूप से मीडिया आम आदमी की बात नहीं करता है। उन्होंने कहा कि जिस मीडिया में दलित-पिछड़े तबकों की बराबर की भागीदारी नहीं है, मुझे ऐसे मीडिया में उम्मीद की कोई किरण नजर नहीं आती।





वरिष्ठ पत्रकार अनिल चमड़िया ने कहा कि मीडिया को समाज में हो रहे बदलावों को स्वीकार करना चाहिए। लेकिन ऐसा शायद ही हो रहा है। खासतौर पर समाज का सत्ताधारी तबका, जिसका संसाधनों पर नियंत्रण है, वह सच्चाई को स्वीकार करने को तैयार नहीं दिख रहा है। एक ओर समाज की हकीकत को जानबूझ कर नजरअंदाज करता है तो दूसरी ओर इसी बहाने अपना सामाजिक मकसद पूरा करता है। उन्होंने कहा कि मुझे लगता है कि कई बार अखबार या टीवी चैनल बहुत सोच-समझ कर सेलेक्टिव तरीके से मुद्दों को जनता के सामने रखते हैं। उनका तरीका ऐसा होता है जिसमें पीड़ितों पर दोषारोपण की स्थिति बनती है और उत्पीड़क वर्गों को या तो बख्श दिया जाता है या खबरों की प्रस्तुति का तरीका ऐसा होता है कि इसमें उत्पीड़न करने वालों के प्रति गुस्सा खत्म हो जाता है, बल्कि कई बार उनके बचाव की स्थितियां पैदा कर दी जाती है। उन्होंने एक टीवी चैनल का उदाहरण देते हुए कहा कि नरेंद्र मोदी का इन्टरव्यू लेते हुए एक अतिउत्साही पत्रकार ने कहा कि मैं पूरे देश की जनता की ओर से कहता हूं कि जनता आपको प्रधानमंत्री के रूप में देखना चाहती है। क्या यह जनादेश का मजाक नही है। उन्होंने भारतीय इतिहास के कई उदाहरणों को संदर्भ के रूप में सामने रखते हुए कहा कि मीडिया कैसे अपने सरोकारों के साथ अपनी सुविधा के हिसाब से खेल करता रहा है। उन्होंने कहा कि आज का मीडिया दरअसल एक उत्पाद भर बन कर गया है, जिसे बेच कर उत्पादक लाभ कमाना चाहता है। आज मीडिया मिशन नहीं, प्रोफेशन हो चुका है। इसमे हानि-लाभ का गणित पूरी योजना के साथ बनाया जाता है। उन्होंने कहा कि मीडिया का चरित्र अगर जातिवादी और समाज की ताकतवर जातियों के पक्ष में है, तो इसके बड़े कारण हैं। दरअसल, किसी भी मीडिया संगठन में काम करने वालों के बीच और खासतौर पर फैसला लेने वाले पदों पर जो लोग रहेंगे, काम पर उसका असर साफ दिखेगा। 2006 में मैंने एक सर्वे किया था। उसमें मीडिया संगठनों में फैसला लेने वाले पदों पर सामाजिक भागीदारी की एक तस्वीर सामने आई थी। यह बेवजह नहीं है कि आज मीडिया को जनसरोकारों से कोई लेना-देना जरूरी नहीं लगता।

आयोजन के दूसरे चरण में खबरों की खरीद-बिक्री, यानी पेड न्यूज पर आधारित उमेश अग्रवाल की एक चर्चित फिल्म ''ब्रोकरिंग न्यूज'' भी दिखाई गई। इस फिल्म में उमेश अग्रवाल ने मीडिया में खबरें छापने के लिए पर्दे के पीछे चलने वाले खेल और सच को दिखाने की कोशिश की है। कहना चाहिए कि उन्होने परदे के पीछे की घिनौनी सच्चाई को सबके सामने लाकर मीडिया का एक ऐसा आयाम सबके सामने रख दिया है जो उसके चौथा खंभा होने के पाखंड को खोलता है। आम लोग अखबार या टीवी की खबरों पर भरोसा करके अपनी राय बनाते हैं और आज अखबार या टीवी एक ऐसी जगह हो चुकी है, जहां बाकायदा खबरें बेची और खरीदी जाती हैं, जहां पैसा लेकर विज्ञापनों को खबरों के रूप में पेश किया जाता है।

फिल्म के प्रदर्शन के बाद सेमिनार में भाग लेने वाले वक्ताओं के साथ-साथ कई श्रोताओं ने सवाल-जवाब में हिस्सा लिया। उमेश अग्रवाल ने दिलीप मंडल के एक सवाल के जवाब में बताया कि यह दरअसल पचासी मिनट की बनी थी, लेकिन इसकी अधिकतम निर्धारित अवधि की वजह से इसके संपादित अंश में कई हिस्सों को छोड़ना पड़ा।

कई मामलों में मीडिया के अराजक व्यवहार के संबंध में दिलीप मंडल ने राय जाहिर की कि मीडिया पर नियंत्रण के लिए कोई पहल तो करनी होगी। उन्होने कहा कि अगर हम मीडिया के उपभोक्ता हैं तो इससे बेहतर गुणवत्ता की मांग जायज है। अंजलि देशपांडे ने इसका विरोध करते हुए कहा कि मीडिया पर नियंत्रण किसी भी स्थिति में ठीक नहीं है। दिलीप मंडल ने भागीदारी का सवाल उठाते हुए कहा कि कॉरपोरेट मीडिया में चूंकि सामाजिक भागीदारी बेहद असंतुलित है, इसलिए इनसे ज्यादा किसी सरकारी व्यवस्था पर भरोसा किया जा सकता है, क्योंकि चाहे किन्हीं कारणों से, वहां भागीदारी के सवाल से जूझने और उसे सुनिश्चित करने की कोशिश की गई है।

कार्यक्रम के आखिर में धन्यवाद ज्ञापन करते हुए रजनीश ने कहा कि आज की बातचीत ने साबित किया है कि जेएनयू बहस और विमर्श के जरिए नए रास्ते खोलने के अपनी ताकत के साथ खड़ा है। समाज के वंचित वर्गों को अब तक मीडिया या संचार के दूसरे माध्यमों ने जिस तरह हाशिये के बाहर रखा था, उम्मीद है कि इस स्थिति पर अब बातचीत और बहस का सिरा बहुत आगे तक जाएगा और इससे कोई हल खोजने में मदद मिलेगी।