Friday 20 January 2012

जन-सरोकारों से बहुत दूर है देश का मीडिया...


राज वाल्मीकि

सरोकारों की सरमाएदारी और मीडिया

11 अक्तूबर, 2011

स्थान- जेएनयू एसएल कमिटी रूम





दिल्ली मीडिया रिसर्च एंड पब्लिकेशन सेंटर और दिल्ली यूनियन ऑफ जर्नलिस्ट की ओर से 11 अक्टूबर 2011 को जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में स्कूल ऑफ लैंग्वेजेज के कमिटी रूम में 'सरोकारों की सरमाएदारी और मीडिया' विषय पर सेमिनार का आयोजन हुआ।

कार्यक्रम की शुरुआत में डीयूजे के महासचिव एसके पांडेय ने संगठन के बारे में विस्तार से बताया और कहा कि पत्रकारिता के क्षेत्र में होने वाली गतिविधियों पर लगातार हमारी नजर रहती है और हम चाहते हैं कि मुद्दों पर बहस हो। इस मकसद से हमने समय-समय पर सेमिनारों या बहसों का आयोजन किया है, ताकि एक स्वस्थ और ईमानदार पत्रकारिता की परंपरा कायम की जा सके। 'सरोकारों की सरमाएदारी और मीडिया' पर बातचीत इसी की एक कड़ी है। उम्मीद है कि इससे कुछ ऐसी बातें निकल कर आएंगी जो भविष्य की पत्रकारिता के उपयोगी हो।

कार्यक्रम के प्रारंभ में मृणाल वल्लरी ने विषय प्रवर्तन के रूप में अपना व्याख्यान दिया। उन्होंने मॅल्कम के एक वक्तव्य का उद्धरण देते हुए कहा कि 'अगर आप सावधान नहीं हैं, तो अखबार आपके भीतर उन लोगों के खिलाफ नफरत भर देंगे जो दमन के शिकार रहे हैं और आप उन लोगों से प्यार करने लगेंगे जो दमन करते रहे हैं।' उन्होंने कहा कि हम एक ऐसे समाज के हिस्से हैं, जो अमूमन अतीतजीवी है और या तो यही सोच कर कुंठित होता है कि "बीता हुआ सब कुछ अच्छा था" या फिर "भविष्य सुनहरा होगा" जैसे शिगूफों से खुद को संतोष देता रहता है। लेकिन अच्छा है कि ज्ञान और दृष्टि पर एकाधिकार की साजिशों की पहचान अब रोज-ब-रोज आसान होती जा रही है और विचारों के लगातार टूटते दायरों ने समाजी आबो-हवा ने जो गर्मी पैदा की है, उससे अतीत के बहुत सारे धुंधलके अब छंटने लगे हैं।

उन्होंने भारतीय मीडिया के सरोकारों की ईमानदारी के संदर्भ में कहा कि इस पर बात करते समय हमें शायद यह ध्यान रखना चाहिए कि इसके सरोकार आखिर रहे हैं क्या हैं। मीडिया को संचालित करने की जिम्मेदारी आमतौर पर जिन सामाजिक वर्गों के हाथ में रही है, उसके लिए सरोकारों के मायने क्या रहे हैं? उन्होंने कहा कि सरोकारों की सरमाएदारी के मूल स्रोत क्या कहीं और से भी निकलते हैं? सामाजिक-राजनीतिक या ऐतिहासिक रूप से दबाए गए तमाम पक्षों और हाशिये के जिन सवालों को सतह पर और केंद्र में लाकर केंद्र में रख देना मीडिया के जो मूल सरोकार होने चाहिए थे, वे सब सिरे से गायब क्यों दिखते हैं? मुनाफे की मंजिल के बरक्स ये हकीकतें क्या सिर्फ संयोग हैं, या फिर मीडिया के सरोकार किसी और स्रोत से संचालित होते हैं?

उन्होंने मीडिया के पूर्वाग्रहपूर्ण रिपोर्टिंग पर सवाल उठाते हुए कहा कि दो से पांच हजार के किसी मजमे को जन-सैलाब और हक को रहम में तब्दील करते एनजीओ कहे जाने वाले गिरोहों के शक्ति प्रदर्शन को देश की आजादी की दूसरी लड़ाई बताने वालों को दो-तीन या चार लाख लोगों का विरोध जताना केवल सड़क जाम का कारण क्यों लगने लगता है? सुश्री वल्लरी ने एक सार्वजनिक मंच के रूप में मीडिया के मनमाने रवैये पर टिप्पणी की कि किसी टीवी चैनल या अखबार का मालिकाना हक़ किसी खास व्यक्ति के पास हो सकता है। वह इसे घाटा सह कर नहीं चलाने का तर्क दे सकता है। लेकिन इस मासूम तर्क के सहारे अखबार या चैनलों में एक सार्वजनिक मंच होने की हकीकत और उसे निबाहने की जिम्मेदारी के सवालों को क्या दरकिनार किया जा सकता है?

उन्होंने मुख्यधारा के मीडिया के रवैए के कारण लोगों को दूसरे विकल्पों की शरण लेने के संदर्भ में कहा कि क्या ये ही वे हालात नहीं हैं, जिस बहुत सारी अभिव्यक्तियों के लिए लोगों को वैकल्पिक माध्यमों का सहारा लेने पर मजबूर किया है? बहुत सारे ब्लॉगरों, निजी वेबसाइटों फेसबुक जैसी सोशल नेटवर्किंग वेबसाइटों के पन्नों पर सूचनाओं और बहसों का विस्फोट हो रहा है, क्या ये तथाकथित मुख्यधारा के मीडिया के घोषित सरोकार नहीं है? लेकिन इन सबके बरक्स कई राज्यों में लगभग सरकारी मुखपत्र या वकील की भूमिका निभा रहे मीडिया के सामने सिर्फ मुनाफा कमाने की मजबूरी है? या फिर इसके पीछे एक सामाजिक राजनीति भी अपने खेल-खेलती है?

उन्होंने एक खतरनाक संकेत की ओर इशारा किया कि जिन-जिन वर्गों को मीडिया ने सचेत तौर पर नजरअंदाज किया या वाजिब जगह नहीं दी, उन्होंने अब अपनी ओर से मीडिया को खारिज करना शुरू कर दिया है। इधर कई बड़े और सफल आयोजनों की न तो किसी अखबार या चैनल में कवरेज करने के लिए आमंत्रण भेजा गया, न प्रेस विज्ञप्ति तक भेजी गई। यह स्थिति किसके लिए डरने की बात है?






इसके बाद कार्यक्रम के संचालन का जिम्मा संभालने वाले समर ने वरिष्ठ पत्रकार कुलदीप नैयर को अपनी बात रखने का आग्रह किया। श्री नैयर ने कहा कि हमारे समय में मालिक हमारे काम में दखलअंदाजी नहीं करते थे। पत्रकारिता पर नियंत्रण के संदर्भ में उन्होने अपनी राय दी कि मुझे पीत-पत्रकारिता या गैरजिम्मेदाराना पत्रकारिता भी मंजूर है, पर पत्रकारिता पर सरकार का नियंत्रण मंजूर नहीं। किसी भी शोषण के खिलाफ लड़ाई मैदान में लड़नी होती है, लेकिन आज समस्या यह है कि कोई लड़ने को तैयार नहीं है। उन्होने कहा कि जिस दिन तुम सच्चाई का खून होते देखो और कुछ न बोलो तो उसी दिन से तुम्हारी मृत्यु होनी शुरू हो गई। उन्होने कहा कि पत्रकारिता एक ताकतवर पेशा है। आज मीडिया को धर्मनिरपेक्षता, समाजवाद, आदर्शवाद और लोकतांत्रिक मूल्यों को अपनाना होगा, क्योंकि देश को इनकी जरूरत है।

जनसत्ता में वरिष्ठ पत्रकार और अपराध-विज्ञान में विशेषज्ञता रखने वाले सुधीर जैन ने पावर प्वाइंट के जरिए अपनी बात रखी। उन्होने पत्रकारिता की जिम्मेदारियों का जिक्र करते हुए कहा कि हमें सरकार के खिलाफ होना क्यों जरूरी है? सरकार हम ही बनाते हैं, लेकिन अगर वह ठीक से काम नहीं करती तो उसे ठीक से काम करने के लिए उस पर दबाव बनाना जरूरी है। सुधीर जी ने कहा कि बहुत से मुद्दे हैं, जो शिद्दत से उठाए जाने चाहिए। लेकिन मीडिया उसे उठाता नहीं। बेरोजगारी, गरीबी, सांप्रदायिकता जैसे अहम मुद्दों को नजरअंदाज करके ध्यान भटकाने वाले मुद्दों की दुकान सजाने का ही नतीजा है कि आज मीडिया की कार्यशैली को लेकर सवाल उठ रहे हैं। उन्होंने कहा कि आज मीडिया ने लगभग तमाम मुद्दों का व्यवसायीकरण कर दिया है। और यही वजह है कि उसकी विश्वसनीयता को लेकर संदेह खड़े हो रहे हैं।

जेएनयू में प्रोफेसर और समाजशास्त्री डॉ विवेक कुमार ने कहा कि आज के ज्यादा मीडिया विश्लेषकों को प्रगतिशीलता के खोल में लिपटे जाति पर आधारित भेदभाव कोई प्रमुख मुद्दा नहीं लगता। इसलिए वे अपने प्रमुख मुद्दों में इसे शामिल नहीं करते। जबकि खुद सरकार के आंकड़े बताते हैं कि पिछले दस वर्षों में दलितों के खिलाफ तीन लाख सत्तर हजार उत्पीड़न की वारदातें हुई हैं। पर मीडिया के लिए यह महत्त्वपूर्ण नहीं है। अगर किसी मजबूरी के तहत ब्योरा देना पड़ भी जाए तो वह जातीय उत्पीड़न की बात नहीं करता। उन्होंने कहा कि 1970 के दशक में पूरे भारत में दलितों के आंदोलन चल रहे थे, पर मीडिया ने इन पर कोई ध्यान नहीं दिया। आज चालीस साल बाद भी स्थिति में कोई बदलाव नहीं आया है। आज भी मीडिया दलितों की नकारात्मक छवि दिखाता है। दलित महिलाओं के साथ बलात्कार और दलितों पर अत्याचार की घटनाओं को कभी-कभी वह दलितो पर अहसान करने के लहजे में थोड़ी-सी जगह दे देता है, जबकि यह उसकी सबसे महत्त्वपूर्ण जिम्मेदारी होनी चाहिए ती। असलियत तो यह है कि इस तरह की खबरों में बड़ी चालाकी से दलितों के खिलाफ उत्पीड़न की घटनाएं दबा दी जाती है और उत्पीड़क वर्गों को बचा लिया जाता है। दलित तो विक्टिम या पीड़ित हैं। लेकिन जब दलित आरक्षण या अपने सम्मान की बात करता है तो उसे मीडिया उसे ऐसे दिखाता है जैसे वे सवर्णों के साथ ज्यादती कर रहे हों। जबकि दलित केवल अपने संविधान प्रदत्त अधिकारों को लेने की मांग करते हैं।

वरिष्ठ पत्रकार दिलीप मंडल ने कुलदीप नैयर के विचारों से असहमत होते हुए कहा कि कुलदीप जी अपने जमाने की पत्रकारिता को ऐसे बता रहे थे जैसे वह पत्रकारिता का स्वर्णयुग था। असल में ऐसा कुछ भी नहीं था। पहले भी चापलूसी और अपने संपादक से लेकर समाज और राजनीति के सत्ताधारी वर्गों को खुश करने वाली पत्रकारिता होती थी, आज भी वही हाल है। उन्होंने कहा कि इस देश का मीडिया शहरी है, एलिट है, हिन्दू समर्थक है, सवर्ण है, कॉरपोरेट है। अन्ना हजारे के अनशन को मीडिया ने ऐसे दिखाया जैसे पूरा देश अन्ना के साथ है। जबकि हकीकत यह है कि अन्ना के आंदोलन में दलितों, पिछड़े तबकों, महिलाओं और अल्पसंख्यकों को को कोई जगह नहीं मिली और न इन वर्गों ने अन्ना का समर्थन किया। जिस तरह अन्ना हजारे के आंदोलन ने दलित-पिछड़ी जातियों के सवालों को साजिशन नजरअंदाज किया, उसे मीडिया ने छिपाने की कोशिश की, लेकिन लोग समझ रहे थे। उन्होंने कहा कि समाज के सत्ताधारी वर्गों के अलावा हमारे देश का मीडिया आमतौर पर बाजार के उतार-चढ़ावों से प्रभावित होता है। शेयर बाजार में अगर किसी क्षेत्र के शेयर भाव गिरने लगते हैं तो वह उसी हिसाब से उससे जुडी खबरों को अपने टीवी चैनल या अखबार में जगह देते हैं। हकीकत यह है कि मीडिया नब्बे प्रतिशत लोगों की बात ही नहीं करता। दलितों के मुद्दों से मीडिया को कोई सरोकार नहीं है। इसका कारण यही है कि टीवी चैनलों के न्यूज रूम में ऊंची कही जाने वाली जातियों का जबर्दस्त वर्चस्व है। आज का मीडिया विज्ञापनदाताओं का है, क्योंकि मीडिया की कमाई विज्ञापनों से होती है। ऐसे मे स्वाभाविक रूप से मीडिया आम आदमी की बात नहीं करता है। उन्होंने कहा कि जिस मीडिया में दलित-पिछड़े तबकों की बराबर की भागीदारी नहीं है, मुझे ऐसे मीडिया में उम्मीद की कोई किरण नजर नहीं आती।





वरिष्ठ पत्रकार अनिल चमड़िया ने कहा कि मीडिया को समाज में हो रहे बदलावों को स्वीकार करना चाहिए। लेकिन ऐसा शायद ही हो रहा है। खासतौर पर समाज का सत्ताधारी तबका, जिसका संसाधनों पर नियंत्रण है, वह सच्चाई को स्वीकार करने को तैयार नहीं दिख रहा है। एक ओर समाज की हकीकत को जानबूझ कर नजरअंदाज करता है तो दूसरी ओर इसी बहाने अपना सामाजिक मकसद पूरा करता है। उन्होंने कहा कि मुझे लगता है कि कई बार अखबार या टीवी चैनल बहुत सोच-समझ कर सेलेक्टिव तरीके से मुद्दों को जनता के सामने रखते हैं। उनका तरीका ऐसा होता है जिसमें पीड़ितों पर दोषारोपण की स्थिति बनती है और उत्पीड़क वर्गों को या तो बख्श दिया जाता है या खबरों की प्रस्तुति का तरीका ऐसा होता है कि इसमें उत्पीड़न करने वालों के प्रति गुस्सा खत्म हो जाता है, बल्कि कई बार उनके बचाव की स्थितियां पैदा कर दी जाती है। उन्होंने एक टीवी चैनल का उदाहरण देते हुए कहा कि नरेंद्र मोदी का इन्टरव्यू लेते हुए एक अतिउत्साही पत्रकार ने कहा कि मैं पूरे देश की जनता की ओर से कहता हूं कि जनता आपको प्रधानमंत्री के रूप में देखना चाहती है। क्या यह जनादेश का मजाक नही है। उन्होंने भारतीय इतिहास के कई उदाहरणों को संदर्भ के रूप में सामने रखते हुए कहा कि मीडिया कैसे अपने सरोकारों के साथ अपनी सुविधा के हिसाब से खेल करता रहा है। उन्होंने कहा कि आज का मीडिया दरअसल एक उत्पाद भर बन कर गया है, जिसे बेच कर उत्पादक लाभ कमाना चाहता है। आज मीडिया मिशन नहीं, प्रोफेशन हो चुका है। इसमे हानि-लाभ का गणित पूरी योजना के साथ बनाया जाता है। उन्होंने कहा कि मीडिया का चरित्र अगर जातिवादी और समाज की ताकतवर जातियों के पक्ष में है, तो इसके बड़े कारण हैं। दरअसल, किसी भी मीडिया संगठन में काम करने वालों के बीच और खासतौर पर फैसला लेने वाले पदों पर जो लोग रहेंगे, काम पर उसका असर साफ दिखेगा। 2006 में मैंने एक सर्वे किया था। उसमें मीडिया संगठनों में फैसला लेने वाले पदों पर सामाजिक भागीदारी की एक तस्वीर सामने आई थी। यह बेवजह नहीं है कि आज मीडिया को जनसरोकारों से कोई लेना-देना जरूरी नहीं लगता।

आयोजन के दूसरे चरण में खबरों की खरीद-बिक्री, यानी पेड न्यूज पर आधारित उमेश अग्रवाल की एक चर्चित फिल्म ''ब्रोकरिंग न्यूज'' भी दिखाई गई। इस फिल्म में उमेश अग्रवाल ने मीडिया में खबरें छापने के लिए पर्दे के पीछे चलने वाले खेल और सच को दिखाने की कोशिश की है। कहना चाहिए कि उन्होने परदे के पीछे की घिनौनी सच्चाई को सबके सामने लाकर मीडिया का एक ऐसा आयाम सबके सामने रख दिया है जो उसके चौथा खंभा होने के पाखंड को खोलता है। आम लोग अखबार या टीवी की खबरों पर भरोसा करके अपनी राय बनाते हैं और आज अखबार या टीवी एक ऐसी जगह हो चुकी है, जहां बाकायदा खबरें बेची और खरीदी जाती हैं, जहां पैसा लेकर विज्ञापनों को खबरों के रूप में पेश किया जाता है।

फिल्म के प्रदर्शन के बाद सेमिनार में भाग लेने वाले वक्ताओं के साथ-साथ कई श्रोताओं ने सवाल-जवाब में हिस्सा लिया। उमेश अग्रवाल ने दिलीप मंडल के एक सवाल के जवाब में बताया कि यह दरअसल पचासी मिनट की बनी थी, लेकिन इसकी अधिकतम निर्धारित अवधि की वजह से इसके संपादित अंश में कई हिस्सों को छोड़ना पड़ा।

कई मामलों में मीडिया के अराजक व्यवहार के संबंध में दिलीप मंडल ने राय जाहिर की कि मीडिया पर नियंत्रण के लिए कोई पहल तो करनी होगी। उन्होने कहा कि अगर हम मीडिया के उपभोक्ता हैं तो इससे बेहतर गुणवत्ता की मांग जायज है। अंजलि देशपांडे ने इसका विरोध करते हुए कहा कि मीडिया पर नियंत्रण किसी भी स्थिति में ठीक नहीं है। दिलीप मंडल ने भागीदारी का सवाल उठाते हुए कहा कि कॉरपोरेट मीडिया में चूंकि सामाजिक भागीदारी बेहद असंतुलित है, इसलिए इनसे ज्यादा किसी सरकारी व्यवस्था पर भरोसा किया जा सकता है, क्योंकि चाहे किन्हीं कारणों से, वहां भागीदारी के सवाल से जूझने और उसे सुनिश्चित करने की कोशिश की गई है।

कार्यक्रम के आखिर में धन्यवाद ज्ञापन करते हुए रजनीश ने कहा कि आज की बातचीत ने साबित किया है कि जेएनयू बहस और विमर्श के जरिए नए रास्ते खोलने के अपनी ताकत के साथ खड़ा है। समाज के वंचित वर्गों को अब तक मीडिया या संचार के दूसरे माध्यमों ने जिस तरह हाशिये के बाहर रखा था, उम्मीद है कि इस स्थिति पर अब बातचीत और बहस का सिरा बहुत आगे तक जाएगा और इससे कोई हल खोजने में मदद मिलेगी।

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