Thursday 4 April 2013

कॉरपोरेट का होमसाइंस



"लड़कियों के पास लुभाने को कुछ होता भी है, मगर नौकरी न पाने वाले सामान्य युवक के पास कुछ भी नहीं होता." -ये "उच्च" विचार वरिष्ठ साहित्यकार और प्रगतिशील माने जाने वाले एक लेखक विश्वनाथ त्रिपाठी के हैं, जो उन्होंने "शुक्रवार" पत्रिका के साहित्य वार्षिकांक में प्रकट किए हैं।

सवाल उठता है कि देश-दुनिया के साहित्य और समाज का विश्लेषण करने के बावजूद एक महान कहा जाने वाला व्यक्ति अगर अपने बुजुर्गावस्था में भी इतने कुत्सित विचार के साथ महान बना रह सकता है तो हम खालिस सामंती और मर्दवादी समाज के मनोविज्ञान में तैयार हुए एक साधारण पुरुष से क्या उम्मीद करेंगे। त्रिपाठी जी को नौकरी मांगने के लिए लड़कियों के पास लुभाने का एक हथियार दिखाई देता है। दरअसल, स्त्री की क्षमताओं को खारिज़ किए बिना पितृसत्ता का जिंदा रहना संभव नहीं होगा। इसलिए सबसे पहली चोट उनकी क्षमताओं पर ही किया जाता है। इसके लिए सबसे आसान यही है कि उनके अस्तित्व को उनके शरीर में समेट दिया जाए।

अगर कोई स्त्री किसी दफ्तरी कामकाज को करने में सक्षम है, तो असली खतरा जितना उससे है, उससे ज्यादा एक समांतर सत्ता के खड़ा हो जाने से है। इसलिए पितृसत्तात्मक कुंठाओं का उदाहरण विश्वनाथ त्रिपाठी के विचार के अलावा भी कई रास्ते अपनाए जाते हैं। विश्वनाथ त्रिपाठी चूंकि साहित्य और विचार के एक सत्ता केंद्र माने जाते हैं, इसलिए उनके खयालों की कसौटी पर रखना जरूरी है। लेकिन इस समाज में जितने भी सत्ता केंद्र हैं, वे मूलतः पितृसत्तात्मक व्यवस्था से ही संचालित होते हैं। आखिरी मकसद इसी व्यवस्था की जड़ों को खाद-पानी पिलाना होता है। सबसे ताकतवर सत्ता-केंद्र के रूप में आज टीवी के जरिए जनमानस की चेतना में जिस बारीक तरीके से मर्द कुंठाओं को और मजबूत किया जा रहा है और नई चुनौतियों से पार पाने का रास्ता बताया जा रहा है, वह हैरान करता है। इसलिए भी कि आधुनिकता का ढोल पीटते हुए हम तमाम लोगों को यह प्रगति का रास्ता लगता है, जो अपने मूल चरित्र में स्त्री को, और इस तरह समूचे समाज को उल्टे अंधेरे में डुबो देने की कोशिश में लगा है।

जीटीवी पर दिखाए जा रहे सीरियल "हाउस वाइफ है, सब जानती है" की नायिका सोना कामकाजी महिला नहीं होना चाहती है। उसका पति, उसकी सास और पूरा परिवार उसे कामकाजी महिला यानी वर्किंग वूमेन बनाने के लिए "साजिशें" रचता है। लेकिन वह अपने "धर्मयुद्ध" में अडिग है। इस नायिका के बहाने बताया जा रहा है कि वे पत्नियां लालची और स्वार्थी होती हैं जो ऑफिस जाना चाहती हैं। आजादी की मांग दरअसल वे महिलाएं करती हैं, जिन्हें अपने परिवार की फिक्र नहीं है। इस सीरियल में हाउसवाइफ का जिस तरह से महिमामंडन किया जा रहा है, वह चौंकाता है और कुछ सोचने पर मजबूर करता है। हमेशा सोलह श्रृंगार से लैस किचेन में जाने वाली सोना को देख और हाउसवाइफ के पक्ष में उसके क्रांतिकारी डायलॉग सुन कर कॅरियर बनाने के लिए जद्दोजहद कर रही कोई भी लड़की अफसोस से भर जाएगी। स्टार प्लस के धारावाहिक "ये रिश्ता क्या कहलाता है" की अक्षरा का भी यही हाल है। जब उसका पति बीमार होकर चार साल बिस्तर पर पड़ा रहा तो उसने पति के ऑफिस में जाकर सब कुछ संभाल लिया। वह एक कामयाब बिजनेस वूमेन के रूप में जानी जाने लगी। लेकिन जब उसका पति ठीक हो गया तो वह ऑफिस नहीं जाना चाहती है। लेकिन पति और सास के "इमोशनल" अत्याचार के बाद वह अपने पति के साथ दफतर जाने को तैयार हो जाती है।



यह टीवी पर चल रही "हाउसवाइफ क्रांति" है। अब दूरदर्शन पर "उड़ान" का वह दौर खत्म हो गया जो युवा होती लड़कियों को कोई शख्सियत बनने की प्रेरणा दे रहा था। अब महिलाओं को मुंह पर मेकअप पोत-थोप कर किचेन में जाने को ही आदर्श स्थिति बताया जा रहा है।

कुछ समय पहले उत्तर प्रदेश के काबीना मंत्री आजम खान स्कूली लड़कियों को नसीहत देते दिखे कि वे खूब पढ़ें-लिखें, लेकिन किसी भी हाल में मायावती न बनें। शायद आजम खान यह कहना चाहते हैं कि लड़कियों को सिर्फ डिंपल यादव बनना चाहिए! डिंपल यादव बनना, मतलब कॅरियर के नाम पर ऐसा पति खोजना जो आपको सब कुछ बना-बनाया दे। राजनीति में कदम रखना चाहें तो पति अपनी सीट छोड़ दे तो आप सांसद बन जाएं। फिर जब पति के संरक्षण में और उसी के भरोसे "कॅरियर" बनाएं तो फेसबुक पर होने वाली "रायशुमारी" में निश्चित रूप से आप पति से जीत जाएंगी। चूंकि आपने मुख्यमंत्री पति की आदर्श पत्नी की भूमिका निभाई है, इसलिए फेसबुक का समाज आप पर फिदा है!!! फेसबुक का समाज मायावती या कोई इस तरह की महिला को नहीं पसंद करेगा, जिसने पति की छाया, यानी "मेहरबानियों" के बिना अपना मुकाम बनाया है।

यानी समाज की तरह घर से बाहर निकलने वाली लड़कियों को हाउसवाइफ की पटरी पर फिर से वापस लाना टीवी और समाज, सबकी नई मुहिम है। मीडिया में इन दिनों ऐसे सर्वेक्षणों और खबरों की बहुतायत हो गई है जिसमें बताया जाता है कि गृहिणी होना अच्छी बात है। गृहिणी शब्द शायद थोड़ा "ओल्ड फैशन" जैसा हो गया है। इसलिए अब इसे "होममेकर" कहा जा सकता है। सुनने में आधुनिक और कान-दिमाग को सुहाने वाला लगता है। गुलाम बनाने के लिए जोर-जबर्दस्ती के मुकाबले गुलामी का ग्लैमराइजेशन, यानी महिमामंडन ज्यादा अच्छा और दीर्घकालिक असर वाला फार्मूला साबित होता है।

तकरीबन साल पहले का लाइफस्टाइल से जुड़ी हिंदुस्तान टाइम्स की पत्रिका "ब्रंच" के आवरण कथा का विषय यही था। बं्रच का यह संस्करण साल भर से ज्यादा पुराना है लेकिन अपने कंटेंट के कारण सहेज कर रखने लायक है। ब्रंच की आवरण कथा का नाम था कमला गो होम्स। कमला का संबोधन गृहणियों के लिए है। स्टोरी के मुताबिक वो फेमिनिस्ट मूवमेंट पुराना हो गया है जिसमें औरतों की मुक्ति बनाम आर्थिक स्वतंत्रता बताया गया था। दरअसल इस आर्थिक स्वतंत्रता के फलसफे के कारण औरतें घर की चारदीवारी से बाहर नौकरी करने के लिए निकल गईं। कार्यक्षेत्र में उन्हें कई तरह की मुश्किलों का सामना करना पड़ा। घटिया बॉस और सहयोगियों की साजिशों से घबराकर कई कमलाओं ने नौकरी से बेहतर घर में बैठकर पति का इंतजार करना और बच्चा पालना बेहतर समझा। अब कारपोरेट मैग्जीन सलाह देती है कि महिलाओं के लिए घर के अंदर ही मनोरंजन का बहुत सा सामान है। अब वो जमाना गया जब महिलाएं मनारंजन के लिए सिर्फ टेलीविजन पर निर्भर रहती थीं। अब तो डीवीडी, म्यूजिक प्लेयर, जिम ऐसे बहुत से सामान हैं जिसमें पति के आने के पहले तक खुद को मशरूफ रखा जा सकता है। और हां महिलाओं को सार्वजनिक जीवन का मजा लेना है तो वे चैरिटी के किसी काम में भागीदार हो सकती हैं।

आज का कॉरपोरेट आधुनिक गृहणियों की एक नई छवि बना रहा है, वह भी उनके मुक्ति गान के साथ। हिंदी समाज के पुनर्जागरण काल में कुछ युगद्रष्टाओं ने महिलाओं के उत्थान की बात की थी। वे शायद आधुनिक भारत की जरूरतें समझ रहे थे। इसलिए उन कुछ मनीषियों ने "होम साइंस" जैसे विषय की परिकल्पना की थी। तब तक भारतीय पुरुष अंग्रेजी शिक्षा और आधुनिक नौकरी के संपर्क में आ गए थे। नए नौकरीपेशा लोगों को दस से पांच के दफ्तर में जाना होता था। इसके लिए उन्हें समय पर खाना चाहिए था। पुरुष दफ्तर में और महिलाएं घर में अकेली होती थीं। अब महिलाओं को इतना पढ़ा-लिखा तो होना ही चाहिए था कि अगर घर में कोई बच्चा और बुजुर्ग बीमार पड़ जाए तो अंग्रेजी दवा का नाम पढ़ कर उसे दवा दे दे, क्योंकि तब तक अंग्रेजी चिकित्सा पद्धति भी अपना बाजार बना चुकी! इसके अलावा, अगर दफ्तर के साहब घर पर आ गए तो पत्नी जी कायदे के साथ प्रभावित करने वाले अंदाज में उन्हें नमस्ते कहे। तो एक ऐसा विषय तैयार करना था जो आधुनिक पुरुषों की जरूरत पूरी कर सके। उसी को ध्यान में रख कर महिलाओं के लिए "होम साइंस" जैसा विषय बनाया गया जिसे आधुनिक समाज ने हाथों-हाथ लिया।

जो हो, "होम साइंस" की दीवारों के भीतर से चुपके से सीढ़ियां चढ़ कर महिलाओं ने दूसरे विषयों की तरफ भी रुख कर लिया और दफ्तरों तक जा पहुंचीं और वहां अपनी एक मुकम्मल जगह बनाई। लेकिन चूंकि परिवार बचाना महिलाओं की ही जिम्मेदारी है और पुरुष इस जिम्मेदारी से मुक्त हैं इसलिए महिलाओं के बढ़ते वर्चस्व से समाज की व्यवस्था को खतरा महसूस हो रहा है! कितने बारीक तरीके से व्यवस्था बुनी और बचाई जाती है। आज की आधुनिक कही जाने वाली स्त्री को भी यह समझने में मुश्किल आ रही है कि जो व्यवस्था उसके महिमामंडन में लगा हुआ है, क्या वह उसमें स्त्री की अस्मिता के लिए भी कोई जगह है। या फिर यह समाज बचाने का शिगूफा स्त्री के अस्तित्व को दफन करने की कीमत पर हो रहा है?

आज का समय कॉरपोरेट का है और वह महिलाओं के लिए नया और आकर्षक "होम साइंस" बना रहा है, ताकि महिलाएं घर की चहारदिवारी में वापस लौट आएं। कॉरपोरेट का यह होमसाइंस उच्च मध्यमवर्गीय महिलाओं के लिए है। अब कोई जरूरत नहीं कि आप किचन में खटती रहें। खाना बनाने के लिए कुक, सफाई वाली सबका सहयोग लें। कामों को आसान करने के लिए आधुनिक मशीनों का सहारा लें। उसके बाद बचे बेशुमार समय का सही इस्तेमाल करें... डीवीडी पर फिल्म देखें, शरीर को फिट रखने के लिए जिम जाएं, डार्क सर्कल, झुर्रियों-झाइयों की चिंता से उबरने के लिए वोदका और व्हिस्की पिएं। और हां कभी टेस्ट बदलने के लिए सार्वजनिक जीवन में जाने की इच्छा हुई तो चैरिटी के किसी कार्यक्रम में जाइए। यानी एक ऐसी महिला की जरूरत है जो सिर पर पल्लू डाल कर आरती भी गा सके, लग्जरी गाड़ी चला कर बच्चों को स्कूल छोड़ने जा सके, जिम में व्यायाम कर शरीर पर चर्बी नहीं जमने दे, शाम में पति के साथ पार्टी में जाकर साल्सा जैसे आधुनिक डांस भी कर सके और घर वापस लौट कर पति के लिए फुलके भी बना सके।

जब आधुनिक उच्च मध्यमवर्गीय महिलाओं के पास पूरे करने के लिए इतने शानदार काम हों तो फिर वह कॅरियर का चकल्लस क्यों पाले। कॅरियर में तो घटिया बॉस और साजिश करनेवाले सहयोगी ही मिलते हैं। यानी यह नया कारपोरेट मीडिया समझा रहा है कि पितृसत्ता तो घर के बाहर दफ्तरों में है। घर में जो है वह गुलामी नहीं, संस्कृति है। संघर्ष से बचने का इससे आसान नुस्खा और क्या हो सकता है? किसी भी व्यवस्था में सत्ता पर कब्जा किए बैठे लोग नहीं बताएंगे कि वंचित वर्गों को उनका हक बिना संघर्ष के नहीं मिल सकता। वे यह सबसे आसान रास्ता बताएंगे कि दुनिया के संघर्ष से बचने के लिए घर में कैद रहना बेहद आसान और बेहतर है। वे यह भी नहीं बताएंगे कि घर की कैद ही स्त्री की सबसे बड़ी दुश्मन रही है और जब तक इस दुश्मन से लड़ा नहीं जाएगा, बाहर के दुश्मनों से निपटना संभव नहीं है।

इसके अलावा, क्या महिलाओं को इस पर कुछ नहीं सोचना चाहिए कि उसका जो कॉरपोरेट पति अपने ऑफिस की महिलाओं के साथ सामंतों-सा और खालिस मर्द कुंठाओं से बजबजाता हुआ व्यवहार करता है, वह घर में आते ही एक आदर्शवादी पुरुष कैसे और क्यों बन जाता है। वैसे समाज में जहां महिलाएं दफ्तर में अपना अस्तित्व बचाने की जद्दोजहद से गुजरती हैं, घर में अपनी अस्मिता की बात भी कैसे कर पाएंगी। नौकरी पर गई गीतिका शर्मा के नियोक्ता के नाते उसका सभी तरह से शोषण करने वाला गोपाल कांडा चाहता है कि उसकी दो बेटियों की जल्द से जल्द शादी हो जाए। कांडा अपनी मां के सामने एकपत्नीव्रता रहना चाहता है। तो क्या, जिम, एंटी एजिंग क्रीम और किटी पार्टियों में व्यस्त बीवियों को अपने इन वहशी पतियों के खिलाफ आवाज नहीं उठानी चाहिए। वे होममेकर बनी रहीं और उनका पति कॅरियर के नाम पर लड़कियों को खुदकुशी की राह पर धकेलता रहे। जो आदमी दफ्तर में एक महिला का सिर्फ इसलिए मनमाना शोषण करता है कि उसने उसे नौकरी दी है, या वह उसकी मातहत है या उसके आसपास बैठती है, वही घर में आकर बड़े आराम से एक आदर्श पति बन जाता है।

जिस तरह से घर की सेहत सुधारने के लिए महिलाओं का हाउसवाइफ होना जरूरी बताया जा रहा है, उससे ज्यादा जरूरी यह है कि समाज की सेहत सुधारने के लिए महिलाओं का कामकाजी होना सिखाया जाए। जब तक दफ्तर से लेकर सड़क पर महिलाएं अल्पसंख्यक बनी रहेंगी, तब तक घर के अंदर भी उनकी हालत नहीं सुधरने वाली है। हाउसवाइफ बनाने की यह मुहिम कहीं बड़ी होती लड़कियों के सपनों की दिशा न बदल दे। लेकिन दीर्घकालिक तौर पर इससे समाज की सेहत जो बिगड़ेगी उससे पार पाना संभव नहीं होगा। स्त्रियों ने बड़े संघर्षों से घर की कैद से आजादी हासिल की है। अब उन्हें फिर से उनकी दुनिया को समेटने या सिमटी हुई नई दुनिया पर गर्व करने के लिए दीवारों और जंजीरों का महिमागान का संजाल परोसा जा रहा है। इस सायास या अनायास, लेकिन बारीक चाल को आज की स्त्री को समझना होगा। वरना अपनी अतीत की नियति का शिकार बनने की जिम्मेदार वह भी होगी।

Wednesday 3 April 2013

पुरुष वर्चस्व के नए औजार और बेईमान सरोकार...




पिछले साल दिल्ली में सामूहिक बलात्कार कांड के बाद हर तरफ महिलाओं की सुरक्षा की बात हो रही थी। लैंगिक संवेदनशीलता की मुहिम चल रही थी। इसी दौर में सिनेमा के पर्दे ने भी एक ‘इनकार’ के जरिए एक स्त्री के यौन-उत्पीड़न की परिस्थितियों की ओर ध्यान आकर्षित करने की कोशिश की। फिल्म के प्रमोशन-प्रचार के दौरान बताया गया कि ‘इनकार’ कॉरपोरेट दफ्तरों में यौन-उत्पीड़न जैसे विषय पर आधारित है और इसके निर्देशक हैं सुधीर मिश्रा। जेंडर सेंसिटाइजेशन के नारों के बीच ‘इनकार’ से कुछ आशा बंधी। लगा कि कुछ ऐसी बात होगी जिससे बहस की गुंजाइश बनेगी, क्योंकि दिल्ली में हुई घटना के बाद मां-बेटी-बहन की सुरक्षा की बातों के बीच जो संबंध सबसे उपेक्षित रहा, वह दफ्तरों में काम करने वाली महिलाएं और उनके सहकर्मी थे। यानी महिला सहकर्मियों के प्रति पुरुषों के भी जेंडर सेंंसिटाइजेशन की बात कोई नहीं करना चाहता था। घर के अंदर और सड़क की बात तो चली, लेकिन दफ्तर के भीतर के माहौल तक नहीं पहुंच सकी।

सुधीर मिश्रा के कॉरपोरेट दफ्तर ने जिस खौफनाक दृश्य से रूबरू कराया, वह आज के दौर में बड़े बहुराष्ट्रीय कंपनियों के कॉरपोरेट दफ्तरों, व्यावसायिक संस्थानों से लेकर मीडिया हाउसों तक की हकीकत है। लेकिन उस हकीकत में सुधीर मिश्रा जैसी रूमानियत नहीं है। सुधीर मिश्रा ने यौन उत्पीड़न के मामले को दिखाने के लिए जो प्लॉट चुना, उसमें पीड़ित और उत्पीड़क-शोषक के बीच पहले प्रेम संबंध रहा। इतने गंभीर मुद्दे पर फिल्मकार की बेईमानी यहीं से शुरू होती है।

आमतौर पर हमारे समाज में अगर किसी स्त्री-पुरुष के बीच कभी आपसी रजामंदी से शारीरिक संबंध बने हों तो उसके बाद कभी भी हुए यौन उत्पीड़न के आरोपों को बेमानी समझा जाता है। यानी यह मान कर चला जाता है कि एक बार स्त्री ने किसी पुरुष के साथ संबंध बनाए हैं तो उसके बाद पुरुष को उसके साथ हमेशा कुछ भी करने का हक मिल जाना चाहिए! यानी उसके बाद उत्पीड़न की शिकायत के लिए कोई जगह नहीं है। ‘इनकार’ की नायिका के साथ ऐसा ही होता है। उसके ऑफिस के दो लोगों को छोड़ कर बाकी सभी को लगता है कि उसके साथ कोई उत्पीड़न हो नहीं सकता, क्योंकि जिस पर वह आरोप लगा रही है, वह उसके साथ सो चुकी है। लेकिन चालाकी से इस खास तरह के समीकरण को चुनने वाले और यथार्थवादी सिनेमा बनाने का दावा करने वाले सुधीर मिश्रा को शायद दफ्तरों में होनेवाले यौन उत्पीड़न का यथार्थ अभी ठीक से मालूम नहीं है।

मान लिया जाए कि ‘इनकार’ का हीरो और हीरोइन दोनों शादीशुदा होते या एक दूसरे के साथ उनका प्रेम संबंध नहीं होता। फिर इनके बीच बने संबंधों को कैसे दिखाया जाता? तब अगर हीरोइन यौन उत्पीड़न के खिलाफ आवाज उठाती तो क्या होता? मेरा खयाल है कि अभी हमारे जेहन से गीतिका शर्मा की खुदकुशी का मामला अभी उतना धुंधला नहीं हुआ होगा। गीतिका, गोपाल कांडा से छुटकारा पाना चाहती थी। लेकिन वह ऐसा नहीं कर पाई। यहां तक कि कांडा की सहयोगी तक गीतिका को कांडा के लिए ‘उपलब्ध’ होने के लिए मजबूर कर रही थी। गीतिका ने शायद अपनी मर्जी से संबंध बनाए थे, इसलिए यौन-उत्पीड़न का उसका आरोप सही नहीं माना जाएगा। और इसके बाद उसका आत्महत्या करना इस समूचे मामले का एक लाजिमी अंजाम था। क्योंकि ‘इनकार’ के दफ्तर में गीतिका जैसी लड़की पीड़ित नहीं, बल्कि ‘अवसरवादी’ है जो ‘प्रमोशन के लिए’ अपने बॉस के साथ सो गई थी। अगर गीतिका भी माया की तरह यौन उत्पीड़न का आरोप लगाती तो कांडा किसी समिति के सामने कहता कि उसके ‘सेंस ऑफ ह्यूमर’ को यौन उत्पीड़न का नाम दिया जा रहा है। तो सुधीर मिश्रा को आज के दफ्तरों के ‘सेंस ऑफ ह्यूमर’ का यथार्थ भी समझ लेना चाहिए।

उदाहरण के तौर पर आप एक अखबार का दफ्तर ले लीजिए जहां हर दीवार पर चौबीसों घंटे टीवी चलते रहते हैं। दस पुरुष कर्मचारियों के बीच एक महिला कर्मचारी बैठी काम कर रही है और कोई पुरुष सबके ‘मनोरंजन’ के लिए ‘कॉमेडी सर्कस’ या ‘बिग बॉस’ सरीखे कार्यक्रम चला देता है और टीवी की आवाज ऊंची कर देता है। ‘कॉमेडी सर्कस’ के चुटकुले और ‘बिग बॉस’ के संवाद क्या किसी महिला के लिए उन पुरुषों के बीच में झेलना आसान होगा, जिनके साथ उसका सिर्फ दफ्तरी कामकाज का रिश्ता है? लेकिन इन संवादों के जरिए किसी महिला को इंगित कर पुरुष अपनी कुंठाओं को कितनी आसानी से शांत कर लेते हैं, इस हिंसा का सच जानने के लिए सुधीर मिश्रा को कुछ देर के लिए इस तरह के दफ्तरों में समय बिताना चाहिए।

‘सेंस ऑफ ह्यूमर’ यानी अपना मन हल्का करने के लिए द्विअर्थी टिप्पणियां या फिर चुटकुले। इसके अलावा, टीवी विज्ञापन, ‘कॉमेडी सर्कस’, ‘बिग बॉस’ आदि के संवाद वगैरह कथित ‘सेंस ऑफ ह्यूमर’ के वे हथियार हैं जिससे किसी महिला की अस्मिता को आसानी से तार-तार किया जा सकता है। ये अनपढ़ और गंवार कहे जाने वाले लोग कर सकते हैं और पढ़े-लिखे और बुद्धिजीवी कहे जाने वाले कई लोग भी संवेदनशीलता की चादर के पीछे खड़े होकर भी वही करते हैं। बिना इस बात की परवाह किए कि इससे उनके पास बैठी स्त्री पर कैसा असर पड़ रहा होगा या फिर यह ठीक-ठीक समझ कर कि उनके ऐसे ‘सेंस ऑफ ह्यूमर’ से उनकी कुंठाओं का शमन होता है। हालांकि संभव है कि ऐसे कई लोगों की पत्नी, बेटी या   बहन नौकरी कर रही होंगी या पढ़ रही होंगी कि आगे वे भी अपने भरोसे और सम्मान के साथ जी सकें।




बहरहाल, कॉरपोरेट दफ्तरों में सिर्फ खूबसूरत महिलाओं को लुभाने की ही बात होती है। कॉरपोरेट सिनेमा का उत्पीड़न खूबसूरती से शुरू होता है और समर्पण पर खत्म हो जाता है। लेकिन दफ्तरों के यथार्थ में उन महिलाओं के साथ भी यौन उत्पीड़न होता है जो खूबसूरत नहीं मानी जाती हैं। इसके बरक्स एक सवाल है कि क्या किसी ने किसी कॉरपोरेट दफ्तर में ऊंचे पद पर किसी दलित या कमजोर सामाजिक पृष्ठभूमि की कम चमक-दमक वाली महिला को देखा है? यानी वैसी महिलाओं को ऊपर तक पहुंचने ही नहीं दिया जाता है। तर्क क्या हो सकते हैं, यह हम सब खूब समझते हैं। लेकिन अगर कसी कम ‘खूबसूरत’ महिला ने यौन उत्पीड़न की शिकायत की तो शायद सेक्शुअल हारासमेंट कंप्लेन कमिटी में कामदार जैसी विशेषज्ञ महिलाओं के सामने सब यही कहेंगे- ‘अरे मैडम... उसकी शक्ल देखी है! उसके साथ कौन छेड़खानी करेगा। हां, पुरुषों पर कार्रवाई के मसले में यथार्थ में वैसा ही होता है जैसा सुधीर मिश्रा ने ‘इनकार’ में दिखाया है। यानी पूरा दफ्तर उस महिला के खिलाफ एक साथ खड़ा हो उठता है, जिसने ऐसी शिकायत करने की हिमाकत की है। ऑफिस में सब उसके साथ अछूत जैसा व्यवहार करने लगते हैं। स्मोकिंग जोन हो या कैंटीन, हर जगह वह महिला एक घृणित चुटकुला बन कर रह जाती है।

ज्यादातार यौन उत्पीड़न की शिकायतों का अंत पुरुष के साथ सहानुभूति शुरू होने के साथ हो जाता है। यानी एक नारी की अस्मिता पर पुरुष की नौकरी भारी पड़ती है। शिकायत समिति में बैठे जिम्मेदार लोगों को एक पुरुष की तुलना में औरत की गरिमा कुछ भी नहीं लगती है। सुधीर ने ‘इनकार’ का जो अंत चुना है, वह इस पूरे विषय को घोर निराशा की तरफ ले जाता है। अपने सीईओ के साथ सोने से इनकार करने वाली माया को अपना केस जीतने के लिए फिल्म का निर्देशक उसे कंपनी के मालिक की बिस्तर की तरफ धकेल देता है, लेकिन एक रहस्य के साथ। इसके बाद यह पता लगने के बाद कि उसके खिलाफ शिकायत करने वाली महिला उन सबके मालिक के पास गई थी, आरोपी के मन में अचानक आई लव यू जाग उठता है। उसकी सफाई होती है कि प्यार करने का ‘उसका अपना तरीका’ था। शायद इसी ‘तरीके’ की वजह से वह अपनी ‘प्रेमिका’ के उस विज्ञापन एजेंसी में क्रियेटिव हेड बनने के बाद कभी बिना संदर्भ के ‘कंडोम पैक करने’ की बात कहता है, कभी किसी मीटिंग में लोगों को ‘शैंपू लगाने वाली’ की याद दिलाता है, कभी बिना वजह के ‘सेक्सी-सेक्सी’ बकने लगता है, कभी दफ्तरी काम के लिए रात में घर बुलाता है और प्रकारांतर से ‘सोने के लिए’ कहता है। एक दृश्य में वह अपनी ‘प्रेमिका’ को झापड़ लगाने की कल्पना करता है और यह बात वह शिकायत समिति को बताता भी है। यह सब होते हुए भी वह ‘अपने तरीके’ से उसे प्रेम करता है। एक कॉरपोरेट आॅफिस में ऊंचे पद पहुंची हुई महिला से प्रेम करने का यह ‘उसका तरीका’ है। शिकायत करने वाली महिला खुद से कुछ नहीं कर सकती, केवल खुद को नायक के लिए ‘उपलब्ध’ करके ‘आगे बढ़ सकती है।’ सुधीर मिश्रा के नायक के हिसाब से वह ‘उसकी दया से...’ इतने ऊंचे पद पर पहुंची है और इस पूरी फिल्म में यही साबित किया गया है कि चूंकि वह नायक की ‘मदद’ से यहां तक पहुंची है, इसलिए उसे शिकायत करने का हक नहीं है।

बहरहाल, अपने लिए जीता हुआ पूरा मामला जब हीरो को अपने खिलाफ उलटता हुआ लगता है तो अचानक उसका ‘हृदय परिवर्तन’ हो जाता है। लेकिन विडंबना यह है कि यही इस फिल्म की असली साजिश है जो इसके पुरुष-तंत्र की ग्रंथि को खोलता है। सुधीर मिश्रा ने भली प्रकार से यह दिखाया है कि शिकायतकर्ता महिला के खिलाफ समूचे दफ्तर की पुरुष-ग्रंथि एक हो जाती है और उससे छुटकारा पाने के लिए ‘किक बैक’ तक का फैसला कर लेती है।  इससे पहले यौन-उत्पीड़न समिति में भी दो सदस्यों के उसके पक्ष में फैसला देने के बावजूद ‘विशेषज्ञ’ कामदार के ‘कन्फ्यूज’ हो जाने के बाद आखिरकार वह मामला हार ही जाती है और अदालत जाने की सोचती है। लेकिन एक महिला वकील ने जो कहा, वह भी इस फिल्म का एक बेहद महत्त्वपूर्ण संवाद है जो फिल्मकार की मंशा को खोलता है। उसने सलाह दी कि ‘रेप को साबित करना आसान होता है, सेक्शुअल हारासमेंट को नहीं; वे तुम्हें कुछ कंपेसेशन देंगे, नहीं तो तुम्हें निकाल बाहर करेंगे; तुम्हारे पास कोई और तरीका है तो आजमाओ...!’ यह कोई और तरीका क्या होगा? पीड़ित आंखों से आंसू बहाते हुए कंपनी के हेड बॉस जॉन के पास जाती है और वहां प्रथम दृष्टया और फिर वहां से निकल कर आरोपी से बात करते हुए दर्शकों को यही समझाया जाता है कि वह जॉन के साथ ‘वही’ कर के आई है। इसके बाद पितृसत्ता के मानसिक ढांचे में मरता-जीता आम दर्शक क्या राय बनाएगा? यानी अपने यौन-उत्पीड़न की लड़ाई जीतने के लिए उसे उसी उत्पीड़न का शिकार उसी शरीर सहारा लेना पड़ेगा, फर्क यह होगा कि वह किसी उच्च पद की ओर ‘अग्रसर’ हो!

यह एक बन चुकी रिवायत की तरह होगी, लेकिन क्या सुधीर मिश्रा इस फिल्म में महज यथार्थ दिखाना भर है? निश्चित रूप से नहीं। क्योंकि फिल्म के आखिर में नायिका के कंपनी के ‘मालिक’ के पास जाकर लौटने के बाद अपने   खिलाफ यौन-उत्पीड़न का जीता हुआ मामला उलटता देख या इस आशंका में आरोपी यानी हीरो कंपनी से इस्तीफा दे देता है। त्याग-पत्र में वह बेहद भावुक करने वाली बातें कहता है और दर्शकों की सारी यह सहानुभूति बटोरकर सहारनपुर की ओर चल देता है कि एक औरत की ‘झूठी’ और ‘बनावटी’ शिकायत के कारण उसे नौकरी छोड़नी पड़ी।

इसके बाद फिल्मकार एक बार फिर अपनी ‘क्रांतिकारी’ मंशा को साफ करता है। आरोपी हीरो के त्याग-पत्र को पढ़ कर पीड़ित हीरोइन भी नौकरी छोड़ कर ऑफिस छोड़ कर निकल जाती है। फिर सहारनपुर की दूरी दर्शाने वाला एक मील का पत्थर दिखाई पड़ता है। इस बीच एक दृश्य परदे पर आता है जिसमें पीड़ित हीरोइन को कंपनी के मालिक जॉन से ‘पाक-साफ’ बच कर निकलते वापस निकलते हुए दिखाया जाता है। यानी एक ‘पाक-साफ’ नायिका अब अपने ‘मासूम और निर्दोष प्रेमी’ के पास जा रही है, यानी कि उसकी शिकायत अब खत्म हो चुकी है।

इसमें कोई शक नहीं कि मध्यांतर के बाद यह फिल्म यौन-उत्पीड़न के मामले को एक समय बड़े सशक्त तरीके से उठाती हुई लगती है। लेकिन इस समग्र रूप से इस फिल्म और इसके अंत के बाद भी अगर कोई इस भ्रम में है कि इसमें सेक्शुअल हारासमेंट जैसे गंभीर मुद्दे को बड़े संवेदनशील तरीके से उठाया गया है तो इस पर एक बार फिर विचार करने की जरूरत है।

दिल्ली में सामूहिक बलात्कार के मामले पर उभरे जनाक्रोश के बाद लगा था कि माहौल कुछ बदलेगा। शायद यह दुनिया औरतों के लिए कुछ इंसाफपसंद होगी। लेकिन हुआ उलटा। नेता से लेकर धर्मगुरु तक औरतों को घर के अंदर बैठने की नसीहत देने लगे। ऐसे लगा कि बस इसी मौके का इंतजार था। महिलाओं के लिए नसीहतों की सुनामी आ गई। सुधीर मिश्रा की ‘इनकार’ को देखने के बाद कुछ वैसा ही उलटा असर पड़ेगा। इस फिल्म को देखने के बाद यौन उत्पीड़न की शिकायतों को बुरी नजर से देखने और महिलाओं को ही चालाक समझने वालों की तादाद बढ़ेगी। यह धारणा मजबूत होगी कि यौन उत्पीड़न की शिकायत करने का मतलब खूबसूरत लड़कियों का अपने आगे बढ़ने के लिए किसी मर्द को फंसाना भर होता है। और यह भी कि अगर कोई महिला यौन उत्पीड़न की शिकायत करती है तो उसे अपना सब कुछ खोने के लिए  तैयार रहना होगा- अपनी नौकरी, अपना सम्मान और परिवार से लेकर अस्मिता तक। पता नहीं सुधीर ने इस संवेदनशील मुद्दे के साथ ऐसी बेईमानी क्यों की!

दरअसल, पिछले कुछ समय एक परिपाटी जैसी शुरू हो गई है कि सरोकार के नाम पर ऐसी फिल्में परोसी जा रही हैं, जो अपने मूल मकसद में आखिरकार पितृसत्तात्मक और सामंती व्यवस्था का ही हित साधती है। इससे हुआ यही है कि इक्कीसवीं सदी के इन ‘बुद्धिजीवी’ निर्देशकों का माइंडसेट सामने आया है कि स्त्री को देखने का इनका नजरिया भी प्रकारांतर से पितृसत्तात्मक और शुद्ध पुरुषवादी ही है। आखिर फतवों और खापों की फरमानों को आज की स्त्रियां सुनने को तैयार नहीं हो रही थीं, तो क्या किया जाए! आखिर स्त्रियों पर नकेल कसने की जरूरत तो है ही! इसलिए आज इक्कीसवीं सदी में बराबरी के संघर्ष में एक-एक कदम कर आगे बढ़ती स्त्री को रोकने के लिए दूसरे मोर्चे से गोटियां बिछाई जा रही हैं, नए हथियार गढ़े जा रहे हैं।