Wednesday 3 April 2013

पुरुष वर्चस्व के नए औजार और बेईमान सरोकार...




पिछले साल दिल्ली में सामूहिक बलात्कार कांड के बाद हर तरफ महिलाओं की सुरक्षा की बात हो रही थी। लैंगिक संवेदनशीलता की मुहिम चल रही थी। इसी दौर में सिनेमा के पर्दे ने भी एक ‘इनकार’ के जरिए एक स्त्री के यौन-उत्पीड़न की परिस्थितियों की ओर ध्यान आकर्षित करने की कोशिश की। फिल्म के प्रमोशन-प्रचार के दौरान बताया गया कि ‘इनकार’ कॉरपोरेट दफ्तरों में यौन-उत्पीड़न जैसे विषय पर आधारित है और इसके निर्देशक हैं सुधीर मिश्रा। जेंडर सेंसिटाइजेशन के नारों के बीच ‘इनकार’ से कुछ आशा बंधी। लगा कि कुछ ऐसी बात होगी जिससे बहस की गुंजाइश बनेगी, क्योंकि दिल्ली में हुई घटना के बाद मां-बेटी-बहन की सुरक्षा की बातों के बीच जो संबंध सबसे उपेक्षित रहा, वह दफ्तरों में काम करने वाली महिलाएं और उनके सहकर्मी थे। यानी महिला सहकर्मियों के प्रति पुरुषों के भी जेंडर सेंंसिटाइजेशन की बात कोई नहीं करना चाहता था। घर के अंदर और सड़क की बात तो चली, लेकिन दफ्तर के भीतर के माहौल तक नहीं पहुंच सकी।

सुधीर मिश्रा के कॉरपोरेट दफ्तर ने जिस खौफनाक दृश्य से रूबरू कराया, वह आज के दौर में बड़े बहुराष्ट्रीय कंपनियों के कॉरपोरेट दफ्तरों, व्यावसायिक संस्थानों से लेकर मीडिया हाउसों तक की हकीकत है। लेकिन उस हकीकत में सुधीर मिश्रा जैसी रूमानियत नहीं है। सुधीर मिश्रा ने यौन उत्पीड़न के मामले को दिखाने के लिए जो प्लॉट चुना, उसमें पीड़ित और उत्पीड़क-शोषक के बीच पहले प्रेम संबंध रहा। इतने गंभीर मुद्दे पर फिल्मकार की बेईमानी यहीं से शुरू होती है।

आमतौर पर हमारे समाज में अगर किसी स्त्री-पुरुष के बीच कभी आपसी रजामंदी से शारीरिक संबंध बने हों तो उसके बाद कभी भी हुए यौन उत्पीड़न के आरोपों को बेमानी समझा जाता है। यानी यह मान कर चला जाता है कि एक बार स्त्री ने किसी पुरुष के साथ संबंध बनाए हैं तो उसके बाद पुरुष को उसके साथ हमेशा कुछ भी करने का हक मिल जाना चाहिए! यानी उसके बाद उत्पीड़न की शिकायत के लिए कोई जगह नहीं है। ‘इनकार’ की नायिका के साथ ऐसा ही होता है। उसके ऑफिस के दो लोगों को छोड़ कर बाकी सभी को लगता है कि उसके साथ कोई उत्पीड़न हो नहीं सकता, क्योंकि जिस पर वह आरोप लगा रही है, वह उसके साथ सो चुकी है। लेकिन चालाकी से इस खास तरह के समीकरण को चुनने वाले और यथार्थवादी सिनेमा बनाने का दावा करने वाले सुधीर मिश्रा को शायद दफ्तरों में होनेवाले यौन उत्पीड़न का यथार्थ अभी ठीक से मालूम नहीं है।

मान लिया जाए कि ‘इनकार’ का हीरो और हीरोइन दोनों शादीशुदा होते या एक दूसरे के साथ उनका प्रेम संबंध नहीं होता। फिर इनके बीच बने संबंधों को कैसे दिखाया जाता? तब अगर हीरोइन यौन उत्पीड़न के खिलाफ आवाज उठाती तो क्या होता? मेरा खयाल है कि अभी हमारे जेहन से गीतिका शर्मा की खुदकुशी का मामला अभी उतना धुंधला नहीं हुआ होगा। गीतिका, गोपाल कांडा से छुटकारा पाना चाहती थी। लेकिन वह ऐसा नहीं कर पाई। यहां तक कि कांडा की सहयोगी तक गीतिका को कांडा के लिए ‘उपलब्ध’ होने के लिए मजबूर कर रही थी। गीतिका ने शायद अपनी मर्जी से संबंध बनाए थे, इसलिए यौन-उत्पीड़न का उसका आरोप सही नहीं माना जाएगा। और इसके बाद उसका आत्महत्या करना इस समूचे मामले का एक लाजिमी अंजाम था। क्योंकि ‘इनकार’ के दफ्तर में गीतिका जैसी लड़की पीड़ित नहीं, बल्कि ‘अवसरवादी’ है जो ‘प्रमोशन के लिए’ अपने बॉस के साथ सो गई थी। अगर गीतिका भी माया की तरह यौन उत्पीड़न का आरोप लगाती तो कांडा किसी समिति के सामने कहता कि उसके ‘सेंस ऑफ ह्यूमर’ को यौन उत्पीड़न का नाम दिया जा रहा है। तो सुधीर मिश्रा को आज के दफ्तरों के ‘सेंस ऑफ ह्यूमर’ का यथार्थ भी समझ लेना चाहिए।

उदाहरण के तौर पर आप एक अखबार का दफ्तर ले लीजिए जहां हर दीवार पर चौबीसों घंटे टीवी चलते रहते हैं। दस पुरुष कर्मचारियों के बीच एक महिला कर्मचारी बैठी काम कर रही है और कोई पुरुष सबके ‘मनोरंजन’ के लिए ‘कॉमेडी सर्कस’ या ‘बिग बॉस’ सरीखे कार्यक्रम चला देता है और टीवी की आवाज ऊंची कर देता है। ‘कॉमेडी सर्कस’ के चुटकुले और ‘बिग बॉस’ के संवाद क्या किसी महिला के लिए उन पुरुषों के बीच में झेलना आसान होगा, जिनके साथ उसका सिर्फ दफ्तरी कामकाज का रिश्ता है? लेकिन इन संवादों के जरिए किसी महिला को इंगित कर पुरुष अपनी कुंठाओं को कितनी आसानी से शांत कर लेते हैं, इस हिंसा का सच जानने के लिए सुधीर मिश्रा को कुछ देर के लिए इस तरह के दफ्तरों में समय बिताना चाहिए।

‘सेंस ऑफ ह्यूमर’ यानी अपना मन हल्का करने के लिए द्विअर्थी टिप्पणियां या फिर चुटकुले। इसके अलावा, टीवी विज्ञापन, ‘कॉमेडी सर्कस’, ‘बिग बॉस’ आदि के संवाद वगैरह कथित ‘सेंस ऑफ ह्यूमर’ के वे हथियार हैं जिससे किसी महिला की अस्मिता को आसानी से तार-तार किया जा सकता है। ये अनपढ़ और गंवार कहे जाने वाले लोग कर सकते हैं और पढ़े-लिखे और बुद्धिजीवी कहे जाने वाले कई लोग भी संवेदनशीलता की चादर के पीछे खड़े होकर भी वही करते हैं। बिना इस बात की परवाह किए कि इससे उनके पास बैठी स्त्री पर कैसा असर पड़ रहा होगा या फिर यह ठीक-ठीक समझ कर कि उनके ऐसे ‘सेंस ऑफ ह्यूमर’ से उनकी कुंठाओं का शमन होता है। हालांकि संभव है कि ऐसे कई लोगों की पत्नी, बेटी या   बहन नौकरी कर रही होंगी या पढ़ रही होंगी कि आगे वे भी अपने भरोसे और सम्मान के साथ जी सकें।




बहरहाल, कॉरपोरेट दफ्तरों में सिर्फ खूबसूरत महिलाओं को लुभाने की ही बात होती है। कॉरपोरेट सिनेमा का उत्पीड़न खूबसूरती से शुरू होता है और समर्पण पर खत्म हो जाता है। लेकिन दफ्तरों के यथार्थ में उन महिलाओं के साथ भी यौन उत्पीड़न होता है जो खूबसूरत नहीं मानी जाती हैं। इसके बरक्स एक सवाल है कि क्या किसी ने किसी कॉरपोरेट दफ्तर में ऊंचे पद पर किसी दलित या कमजोर सामाजिक पृष्ठभूमि की कम चमक-दमक वाली महिला को देखा है? यानी वैसी महिलाओं को ऊपर तक पहुंचने ही नहीं दिया जाता है। तर्क क्या हो सकते हैं, यह हम सब खूब समझते हैं। लेकिन अगर कसी कम ‘खूबसूरत’ महिला ने यौन उत्पीड़न की शिकायत की तो शायद सेक्शुअल हारासमेंट कंप्लेन कमिटी में कामदार जैसी विशेषज्ञ महिलाओं के सामने सब यही कहेंगे- ‘अरे मैडम... उसकी शक्ल देखी है! उसके साथ कौन छेड़खानी करेगा। हां, पुरुषों पर कार्रवाई के मसले में यथार्थ में वैसा ही होता है जैसा सुधीर मिश्रा ने ‘इनकार’ में दिखाया है। यानी पूरा दफ्तर उस महिला के खिलाफ एक साथ खड़ा हो उठता है, जिसने ऐसी शिकायत करने की हिमाकत की है। ऑफिस में सब उसके साथ अछूत जैसा व्यवहार करने लगते हैं। स्मोकिंग जोन हो या कैंटीन, हर जगह वह महिला एक घृणित चुटकुला बन कर रह जाती है।

ज्यादातार यौन उत्पीड़न की शिकायतों का अंत पुरुष के साथ सहानुभूति शुरू होने के साथ हो जाता है। यानी एक नारी की अस्मिता पर पुरुष की नौकरी भारी पड़ती है। शिकायत समिति में बैठे जिम्मेदार लोगों को एक पुरुष की तुलना में औरत की गरिमा कुछ भी नहीं लगती है। सुधीर ने ‘इनकार’ का जो अंत चुना है, वह इस पूरे विषय को घोर निराशा की तरफ ले जाता है। अपने सीईओ के साथ सोने से इनकार करने वाली माया को अपना केस जीतने के लिए फिल्म का निर्देशक उसे कंपनी के मालिक की बिस्तर की तरफ धकेल देता है, लेकिन एक रहस्य के साथ। इसके बाद यह पता लगने के बाद कि उसके खिलाफ शिकायत करने वाली महिला उन सबके मालिक के पास गई थी, आरोपी के मन में अचानक आई लव यू जाग उठता है। उसकी सफाई होती है कि प्यार करने का ‘उसका अपना तरीका’ था। शायद इसी ‘तरीके’ की वजह से वह अपनी ‘प्रेमिका’ के उस विज्ञापन एजेंसी में क्रियेटिव हेड बनने के बाद कभी बिना संदर्भ के ‘कंडोम पैक करने’ की बात कहता है, कभी किसी मीटिंग में लोगों को ‘शैंपू लगाने वाली’ की याद दिलाता है, कभी बिना वजह के ‘सेक्सी-सेक्सी’ बकने लगता है, कभी दफ्तरी काम के लिए रात में घर बुलाता है और प्रकारांतर से ‘सोने के लिए’ कहता है। एक दृश्य में वह अपनी ‘प्रेमिका’ को झापड़ लगाने की कल्पना करता है और यह बात वह शिकायत समिति को बताता भी है। यह सब होते हुए भी वह ‘अपने तरीके’ से उसे प्रेम करता है। एक कॉरपोरेट आॅफिस में ऊंचे पद पहुंची हुई महिला से प्रेम करने का यह ‘उसका तरीका’ है। शिकायत करने वाली महिला खुद से कुछ नहीं कर सकती, केवल खुद को नायक के लिए ‘उपलब्ध’ करके ‘आगे बढ़ सकती है।’ सुधीर मिश्रा के नायक के हिसाब से वह ‘उसकी दया से...’ इतने ऊंचे पद पर पहुंची है और इस पूरी फिल्म में यही साबित किया गया है कि चूंकि वह नायक की ‘मदद’ से यहां तक पहुंची है, इसलिए उसे शिकायत करने का हक नहीं है।

बहरहाल, अपने लिए जीता हुआ पूरा मामला जब हीरो को अपने खिलाफ उलटता हुआ लगता है तो अचानक उसका ‘हृदय परिवर्तन’ हो जाता है। लेकिन विडंबना यह है कि यही इस फिल्म की असली साजिश है जो इसके पुरुष-तंत्र की ग्रंथि को खोलता है। सुधीर मिश्रा ने भली प्रकार से यह दिखाया है कि शिकायतकर्ता महिला के खिलाफ समूचे दफ्तर की पुरुष-ग्रंथि एक हो जाती है और उससे छुटकारा पाने के लिए ‘किक बैक’ तक का फैसला कर लेती है।  इससे पहले यौन-उत्पीड़न समिति में भी दो सदस्यों के उसके पक्ष में फैसला देने के बावजूद ‘विशेषज्ञ’ कामदार के ‘कन्फ्यूज’ हो जाने के बाद आखिरकार वह मामला हार ही जाती है और अदालत जाने की सोचती है। लेकिन एक महिला वकील ने जो कहा, वह भी इस फिल्म का एक बेहद महत्त्वपूर्ण संवाद है जो फिल्मकार की मंशा को खोलता है। उसने सलाह दी कि ‘रेप को साबित करना आसान होता है, सेक्शुअल हारासमेंट को नहीं; वे तुम्हें कुछ कंपेसेशन देंगे, नहीं तो तुम्हें निकाल बाहर करेंगे; तुम्हारे पास कोई और तरीका है तो आजमाओ...!’ यह कोई और तरीका क्या होगा? पीड़ित आंखों से आंसू बहाते हुए कंपनी के हेड बॉस जॉन के पास जाती है और वहां प्रथम दृष्टया और फिर वहां से निकल कर आरोपी से बात करते हुए दर्शकों को यही समझाया जाता है कि वह जॉन के साथ ‘वही’ कर के आई है। इसके बाद पितृसत्ता के मानसिक ढांचे में मरता-जीता आम दर्शक क्या राय बनाएगा? यानी अपने यौन-उत्पीड़न की लड़ाई जीतने के लिए उसे उसी उत्पीड़न का शिकार उसी शरीर सहारा लेना पड़ेगा, फर्क यह होगा कि वह किसी उच्च पद की ओर ‘अग्रसर’ हो!

यह एक बन चुकी रिवायत की तरह होगी, लेकिन क्या सुधीर मिश्रा इस फिल्म में महज यथार्थ दिखाना भर है? निश्चित रूप से नहीं। क्योंकि फिल्म के आखिर में नायिका के कंपनी के ‘मालिक’ के पास जाकर लौटने के बाद अपने   खिलाफ यौन-उत्पीड़न का जीता हुआ मामला उलटता देख या इस आशंका में आरोपी यानी हीरो कंपनी से इस्तीफा दे देता है। त्याग-पत्र में वह बेहद भावुक करने वाली बातें कहता है और दर्शकों की सारी यह सहानुभूति बटोरकर सहारनपुर की ओर चल देता है कि एक औरत की ‘झूठी’ और ‘बनावटी’ शिकायत के कारण उसे नौकरी छोड़नी पड़ी।

इसके बाद फिल्मकार एक बार फिर अपनी ‘क्रांतिकारी’ मंशा को साफ करता है। आरोपी हीरो के त्याग-पत्र को पढ़ कर पीड़ित हीरोइन भी नौकरी छोड़ कर ऑफिस छोड़ कर निकल जाती है। फिर सहारनपुर की दूरी दर्शाने वाला एक मील का पत्थर दिखाई पड़ता है। इस बीच एक दृश्य परदे पर आता है जिसमें पीड़ित हीरोइन को कंपनी के मालिक जॉन से ‘पाक-साफ’ बच कर निकलते वापस निकलते हुए दिखाया जाता है। यानी एक ‘पाक-साफ’ नायिका अब अपने ‘मासूम और निर्दोष प्रेमी’ के पास जा रही है, यानी कि उसकी शिकायत अब खत्म हो चुकी है।

इसमें कोई शक नहीं कि मध्यांतर के बाद यह फिल्म यौन-उत्पीड़न के मामले को एक समय बड़े सशक्त तरीके से उठाती हुई लगती है। लेकिन इस समग्र रूप से इस फिल्म और इसके अंत के बाद भी अगर कोई इस भ्रम में है कि इसमें सेक्शुअल हारासमेंट जैसे गंभीर मुद्दे को बड़े संवेदनशील तरीके से उठाया गया है तो इस पर एक बार फिर विचार करने की जरूरत है।

दिल्ली में सामूहिक बलात्कार के मामले पर उभरे जनाक्रोश के बाद लगा था कि माहौल कुछ बदलेगा। शायद यह दुनिया औरतों के लिए कुछ इंसाफपसंद होगी। लेकिन हुआ उलटा। नेता से लेकर धर्मगुरु तक औरतों को घर के अंदर बैठने की नसीहत देने लगे। ऐसे लगा कि बस इसी मौके का इंतजार था। महिलाओं के लिए नसीहतों की सुनामी आ गई। सुधीर मिश्रा की ‘इनकार’ को देखने के बाद कुछ वैसा ही उलटा असर पड़ेगा। इस फिल्म को देखने के बाद यौन उत्पीड़न की शिकायतों को बुरी नजर से देखने और महिलाओं को ही चालाक समझने वालों की तादाद बढ़ेगी। यह धारणा मजबूत होगी कि यौन उत्पीड़न की शिकायत करने का मतलब खूबसूरत लड़कियों का अपने आगे बढ़ने के लिए किसी मर्द को फंसाना भर होता है। और यह भी कि अगर कोई महिला यौन उत्पीड़न की शिकायत करती है तो उसे अपना सब कुछ खोने के लिए  तैयार रहना होगा- अपनी नौकरी, अपना सम्मान और परिवार से लेकर अस्मिता तक। पता नहीं सुधीर ने इस संवेदनशील मुद्दे के साथ ऐसी बेईमानी क्यों की!

दरअसल, पिछले कुछ समय एक परिपाटी जैसी शुरू हो गई है कि सरोकार के नाम पर ऐसी फिल्में परोसी जा रही हैं, जो अपने मूल मकसद में आखिरकार पितृसत्तात्मक और सामंती व्यवस्था का ही हित साधती है। इससे हुआ यही है कि इक्कीसवीं सदी के इन ‘बुद्धिजीवी’ निर्देशकों का माइंडसेट सामने आया है कि स्त्री को देखने का इनका नजरिया भी प्रकारांतर से पितृसत्तात्मक और शुद्ध पुरुषवादी ही है। आखिर फतवों और खापों की फरमानों को आज की स्त्रियां सुनने को तैयार नहीं हो रही थीं, तो क्या किया जाए! आखिर स्त्रियों पर नकेल कसने की जरूरत तो है ही! इसलिए आज इक्कीसवीं सदी में बराबरी के संघर्ष में एक-एक कदम कर आगे बढ़ती स्त्री को रोकने के लिए दूसरे मोर्चे से गोटियां बिछाई जा रही हैं, नए हथियार गढ़े जा रहे हैं।

No comments:

Post a Comment